सरकार यह क्यों नहीं मानती कि वह किसानों को अपनी बात समझाने में असफल हो रही है?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मुझे उम्मीद थी कि सातवें दौर की बातचीत में सरकार और किसान नेता सारे मामले हल कर लेंगे। ऐसा इसलिए लग रहा था कि छठे दौर की बातचीत में दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के प्रति सद्भावना का प्रदर्शन किया था। सरकार ने माना था कि वह अपने वायु-प्रदूषण और बिजली-बिल के कानून में संशोधन कर लेगी ताकि किसानों की मुश्किलें कम हों।
किसान नेता इतने खुश हुए कि उन्होंने साथ लाया हुआ भोजन मंत्रियों को करवाया और मंत्रियों की चाय भी स्वीकारी। पिछली बैठकों में उन्होंने सरकारी भोजन और चाय लेने से मना कर दिया था। कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने घोषणा की कि किसानों की 50% मांगें तो सरकार ने मान ही ली हैं। लेकिन सातवें दौर की बैठक शुरू होती, उसके पहले ही किसान नेताओं ने स्पष्ट कर दिया कि असली मसला अपनी जगह खड़ा है। ये छोटी-मोटी मांगें थीं। असली मुद्दा तो यह है कि तीनों कृषि-कानून वापस हों और न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रूप दिया जाए। सरकार इसके लिए भी तैयार थी कि कोई संयुक्त कमेटी बना दी जाए, जो इन मुद्दों पर भलीभांति विचार करके राय पेश करे। लेकिन सातवें दौर की बातचीत भी बांझ साबित हुई।
अब आठवां दौर भी शीघ्र होनेवाला है। इस बीच दोनों तरफ से कुछ अच्छे संकेत मिले हैं। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने किसान आंदोलन को बदनाम करनेवालों को आड़े हाथों लिया है। उसका तार पाकिस्तान और खालिस्तान से जोड़ने की निंदा की है। उन्होंने सिख जवानों द्वारा राष्ट्र-रक्षा के लिए योगदान को सराहा और दूसरी तरफ हमारे किसान भाइयों ने गांधीजी के अहिंसक सत्याग्रहियों की याद ताजा कर दी है। दिल्ली की कड़ाके की ठंड में हजारों किसान शांतिपूर्वक धरने पर डटे हैं।
लगभग 55 किसान स्वर्गवासी हो गए और कुछेक ने आत्महत्या भी कर ली। यह ठीक है कि बीच-बीच में रास्ते रोकने के उनके अभियान के कारण यात्रियों को काफी असुविधा हुई लेकिन प्रदर्शनकारी किसानों ने तोड़-फोड़ और हिंसा का सहारा नहीं लिया। यह भारतीय लोकतंत्र की श्रेष्ठता का परिचायक है। उन्होंने राजनीतिक नेताओं को भी प्रत्यक्षतः अपने आंदोलन में शामिल नहीं होने दिया। इसके बावजूद लग रहा है कि 8 जनवरी को होनेवाली अगली बैठक में भी इस समस्या का हल मुश्किल है। दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी राय को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है। सरकार ने थोड़ी नरमी जरूर दिखाई है। उसका कहना है कि इन कानूनों के हर प्रावधान पर खुलकर बात हो। किसान नेता संशोधन सुझाएं। सरकार की कोशिश होगी कि वह उन्हें मान ले। यदि ऐसा है तो किसान नेता संशोधन पर संशोधन क्यों नहीं सुझा देते?
इन तीनों कानूनों में ऐसा जोड़-घटाव कर दें कि वे फिर पहचाने ही न जा सकें। उनका रहना या न रहना या उनका होना न होना, पता ही न चले। सरकार की नाक भी बची रहेगी और किसानों का लक्ष्य भी पूरा हो जाएगा। सरकार का दावा है कि ये कानून किसानों के भले के लिए हैं। यदि सरकार इसी पर अड़ी रही और उसने सारे सुझाव रद्द कर दिए तो यह आंदोलन क्या रूप धारण करेगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। इसमें असली पेंच यह है कि यहां डॉक्टर और मरीज अपने-अपने वाली पर अड़े हुए हैं।
अगर मरीज कोई दवा नहीं लेना चाहता है और उसे वह जहर मानता है तो आप उसके गले में उसे जबर्दस्ती क्यों ठूंसना चाहते हैं? इस संबंध में मेरे कुछ सुझाव हैं। पहला, यदि यह आंदोलन सिर्फ पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मालदार किसानों का है तो इन सभी राज्यों को इस कानून से छुटकारा क्यों नहीं दिला देते? जिन राज्यों को यह कानून लागू करना हो, वे करें और जिन्हें न करना हो, वे न करें। यों भी संविधान की धारा 246 खेती को राज्यों का विषय मानती है।
दूसरा, जहां तक न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का सवाल है, ये अभी 23 फसलों पर हैं। यदि केरल सरकार की तरह ये दर्जनों सब्जियों और फलों पर भी घोषित हो जाएं तो हरियाणा और पंजाब के किसान गेहूं और धान की खेती के अलावा कई अन्य लाभकारी खेतियां करने लगेंगे। सरकार का बोझ भी घटेगा। अनाज सड़ने और सस्ता बिकने से बचेगा। तीसरा, देश के 94% किसान समर्थन मूल्य की दया पर निर्भर नहीं हैं। वे अपना माल खुले बाजार में बेचते हैं। वे अपनी जमीन और फसल ठेके पर देने के लिए मुक्त हैं।
सरकार यह फिजूल का कानून उन पर क्यों थोपना चाहती है? चौथा, इस कानून ने उपज के भंडारण की सीमा हटाकर ठीक नहीं किया। इससे शक होता है कि सरकार पूंजीपतियों को लूटपाट की छूट देना चाहती है। पांचवां, यदि यह सिर्फ कुछ मालदारों किसानों और विपक्षी नेताओं का आंदोलन है तो सरकार देश के 94% किसानों के समानांतर धरने पूरे देश में आयोजित क्यों नहीं करती? सरकार यह क्यों नहीं मानती कि वह किसानों को अपनी बात समझाने में असफल हो रही है?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)