महलों के लिए जलने वाला दीप : वरिष्ठ पत्रकार विनोद वर्मा की त्वरित टिप्पणी
रविवार को रात 9 बजे 9 मिनट के लिए सबको कोरोना प्रकाशोत्सव में शामिल होना है. अपने घरों के दरवाज़ों पर या बाल्कनी में खड़े होकर दीया, मोमबत्ती, टॉर्च या मोबाइल की फ़्लैश लाइट जलानी है.
लेकिन उससे पहले आपको अपने घरों की सारी बत्तियां बुझानी हैं. जैसा कि प्रधानमंत्री जी के निर्देश हैं, “हमें प्रकाश के तेज को चारों तरफ़ फ़ैलाना है.”
अब कई लोग पूछ रहे हैं कि इसका मतलब यह है कि पहले अंधेरा फैलाना है और फिर उजाला करना है. ये नादान लोग प्रधानमंत्री जी की बातों की भावनाओं को समझ नहीं रहे हैं. अगर लाइटें जलती रहीं तो दीए और मोमबत्ती की रोशनी दिखेगी कहां? फ़ोटो अपॉर्चुनिटी मिस हो जाएगी. कोरोना संकट के अंधकार को पता ही नहीं चलेगा कि लोगों ने उजाला फैलाया. कोरोना के संकट को बताना ज़रुरी है कि उजाला हुआ.
याद कीजिए मोदी जी ने राष्ट्र को दिए अपने वीडियो संदेश में क्या कहा, “जो इस कोरोना संकट से सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं, हमारे ग़रीब भाई बहन, उन्हें कोरोना संकट से पैदा हुई निराशा से आशा की तरफ़ ले जाना है.”
उन ग़रीबों की निराशा इस प्रकाशोत्सव से आशा की तरफ़ जाएगी या नहीं? जिसका रोज़गार बंद है, जिसके घर पर राशन नहीं है, जो नहीं जानता कि लॉक-डाउन ख़त्म होने के बाद उसे रोज़गार मिलेगा भी या नहीं उसकी निराशा और हताशा की पैमाइश कोई कैसे कर सकता है? भूखे व्यक्ति को रोटी चाहिए या भूख के समर्थन में देश की एकजुटता?
नरेंद्र मोदी जी 130 करोड़ लोगों की महाशक्ति की बात कर रहे हैं. वे शायद भूल रहे हैं कि इनमें से आधे से भी अधिक लोग इस वक़्त निराशा के गहरे गर्त में हैं. वे ले-देकर अपने परिवार के लिए राशन की व्यवस्था करने लायक शक्ति जुटा पा रहे हैं वे महाशक्ति का प्रदर्शन कैसे कर पाएंगे?
दरअसल आप जब अंधेरे का डर दिखाते हैं प्रधानमंत्री जी तो याद रखना चाहिए कि इस अंधेरे में आपके राज का अंधेर भी शामिल है. आपके प्रकाशोत्सव के आव्हान पर लोगों को व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी की रचना याद आ रही है. टॉर्च बेचने वाला. इसमें उन्होंने लिखा है, “चाहे कोई दार्शनिक बने, संत बने, साधु बने, अगर वह अंधेरे का डर दिखाता है तो वह ज़रूर अपनी कंपनी का टॉर्च बेचना चाहता है.” आप भी तो अंधेरे का डर दिखा रहे हैं और रोशनी तो आप भी बेचना चाहते हैं. ग़रीब, बेरोज़गार, बेघरबार और भूखे लोगों को. टॉर्च तो आप भी बेचना चाह रहे हैं, बस कह नहीं पा रहे हैं.
दरअसल, जो आप कह नहीं पा रहे हैं वह यह है कि आप की चिंता में ग़रीब है ही नहीं. आपकी चिंता में वह मध्यमवर्ग है जिसके घर में बाल्कनी है. जिसके घर में दीया जलाने को तेल है या फिर मोमबत्ती, टॉर्च या फ़्लैश लाइट दिखाने वाला मोबाइल है. आपको चिंता है कि वह घर पर खाली बैठा अगर आपके छह बरसों का हिसाब कर बैठा तो अनर्थ हो जाएगा. आप जानते हैं कि कोरोना की मार अभी भले ही ग़रीब तबके पर पड़ी हो पर निशाने पर अगला व्यक्ति मध्यमवर्ग से आएगा. वही आपका वोटर है. वही आपका भक्त है. और वही इस समय इस देश का सबसे बड़ा मूर्ख वर्ग है. आप उनसे मुखातिब हैं. आप उनको साधे रखना चाहते हैं.
आपका दीप ऊंची इमारतों, अट्टालिकाओं और महलों के लिए है और चंद लोगों की ख़ुशियों को लेकर चलता है. वह ग़रीबों और वंचित लोगों के लिए न है और न उनके लिए जलेगा.
मशहूर शायर हबीब जालिब की रचना याद आती है,
दीप जिसका महल्लात* ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को लेकर चले
वो जो साए में हर मस्लहत** के पले
ऐसे दस्तूर को, सुब्ह-ए-बे-नूर को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता