December 26, 2024

मोदी के मूर्ति ‘छूने’ से शंकराचार्य को दिक्कत है? अयोध्या न जाने की स्वामी निश्चचलानंद ने ये क्या वजह बताई…

SHANKRACHARY MODI

अयोध्या। पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद ने अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में शामिल होने से इनकार कर दिया है। उन्होंने इसे लेकर कहा है कि वह अयोध्या नहीं जाएंगे क्योंकि उन्हें अपने पद की गरिमा का ध्यान है। उन्होंने कहा कि वहां पीएम नरेंद्र मोदी मूर्ति का लोकार्पण करेंगे और उसे स्पर्श करेंगे। क्या मैं वहां ताली बजा-बजाकर जय-जय करूंगा? शंकराचार्य के इस बयान के बाद से कंट्रोवर्सी शुरू हो गई है। प्रधानमंत्री मोदी के मूर्ति को स्पर्श करने को शंकराचार्य द्वारा रेखांकित करने पर पुराने विवाद की यादें भी ताजा हो गई हैं। साथ ही सवाल भी उठ रहे हैं कि ऐसे समय में जब नरेंद्र मोदी को सनातन धर्म के प्रतीकों के रक्षक के तौर पर देखा जा रहा है तब स्वामी निश्चलानंद उनसे नाराज क्यों हैं? और ऐसे बागी बयान क्यों दे रहे हैं?

कौन हैं निश्चलानंद
गोवर्धन मठ पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती उर्फ नीलाम्बर का जन्म बिहार में हुआ था। 18 अप्रैल 1974 को हरिद्वार में लगभग 31 साल की आयु में स्वामी करपात्री महाराज के सान्निध्य में उन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। इसके बाद से वह नीलाम्बर से स्वामी निश्चलानंद हो गए थे। पुरी के 144वें शंकराचार्य स्वामी निरंजन देव तीर्थ महाराज ने स्वामी निश्चलानंद सरस्वती को अपना उत्तराधिकारी मानकर 9 फरवरी 1992 को पुरी के 145 वें शंकराचार्य पद पर आसीन किया था।

शंकराचार्य शासकों पर शासन करने वाले
राम मंदिर आंदोलन के बहाने धर्म और राजनीति के आपस में घुल-मिल जाने के दौर में तमाम संत खुलकर अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने लगे हैं। अयोध्या के तमाम मठों के महंत और शंकराचार्य भी राजनैतिक पार्टियों के समर्थन में यदा-कदा नजर आते हैं। ऐसे माहौल में भी पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद इस बात पर भरोसा करते हैं कि शंकराचार्य का पद किसी पार्टी को समर्थन देने वाला नहीं बल्कि शासकों पर शासन करने वाला पद है। उनकी वेबसाइट पर यह वाक्य प्रमुखता से दर्ज भी है। ऐसे में उनकी इस सैद्धांतिकी में पीएम मोदी से उनका विरोध काफी हद तक समझा भी जा सकता है।

राजनीति में संतों का इस्तेमाल
निश्चलानंद स्वामी राजनीति में संतों का इस्तेमाल किए जाने की प्रवृत्ति से भी नाराज दिखते हैं। हाल ही में उन्होंने इसे लेकर एक बयान दिया था कि सियासी पार्टियां पहले संतों को अपना स्टार प्रचारक बनाती हैं और बाद में उन्हें मौनी बाबा बना देती हैं। उन्होंने श्री-श्री रविशंकर और योग गुरु बाबा रामदेव का उदाहरण भी दिया। उन्होंने किसी पार्टी का नाम लिए बिना कहा था कि पहले राजनैतिक दल ने दोनों का भरपूर इस्तेमाल किया। शासन सत्ता पाते ही उन्हें मौनी बाबा बना दिया गया।

भाजपा से क्या है नाराजगी
स्वामी निश्चलादनंद की भाजपा से नाराजगी क्या है, इसका जवाब साफतौर पर नहीं दिया जा सकता। हालांकि, अपने बयानों में जब-तब उन्होंने भाजपा नेताओं और संघ प्रमुख को भी निशाने पर लिया है। उन्होंने बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री की इसलिए निंदा की थी कि वह भाजपा के प्रचारक बन गए हैं। इसके अलावा हिंदू धर्म में जाति व्यवस्था पर बयान देने वाले मोहन भागवत के लिए कहा था कि उनके पास ज्ञान की कमी है। इतना ही नहीं, हिंदू मंदिरों में सरकार के हस्तक्षेप से भी निश्चलानंद को दिक्कत है। अपने एक बयान में उन्होंने कहा था कि मंदिरों में सरकार का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए और ट्रस्ट को सक्षम बनकर मंदिरों में बेहतर व्यवस्था करनी चाहिए। मंदिरों के लगातार हो रहे ‘कॉरिडोरीकरण’ का भी निश्चलानंद ने अक्सर विरोध किया है।

नमन-दमन-मिलन मोदी के गुण
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्वामी निश्चलानंद कभी प्रशंसा करते हैं तो कभी उनसे नाराज भी रहते हैं। उनके बयानों से लगता है कि राम मंदिर निर्माण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ज्यादा उपस्थिति भी उनकी आपत्ति का कारण है। राम मंदिर के भूमिपूजन के दौरान उन्होंने इसे लेकर बड़ा बयान दिया था। निश्चलानंद ने सवालिया लहजे में कहा था कि राम जन्मभूमि को लेकर मोदी की क्या भूमिका रही थी? राम मंदिर निर्माण को लेकर क्या उनका एक भी भाषण सुनने को मिलेगा।

‘मोदी मूर्ति छुएंगे’ से दिक्कत?
अयोध्या न जाने के लिए स्वामी निश्चलानंद ने जो कारण गिनाया है, उसमें उन्होंने कहा है, ‘मोदी लोकार्पण करें। मूर्ति को स्पर्श करेंगे, तो मैं वहां ताली बजाकर जय-जयकार करूंगा क्या?’ उनके इस बयान के तमाम मतलब भी निकाले जा रहे हैं। कहा यह भी जा रहा है कि शंकराचार्य को मोदी के मूर्ति छूने से दिक्कत है। इस संदर्भ में एक पुराने विवाद की भी चर्चा चल पड़ी है। दरअसल, वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर में दलितों के प्रवेश की इजाजत नहीं थी। साल 1958 में काफी लंबी लड़ाई के बाद दलितों को प्रवेश का मौका मिला। तब जैसे ही दलितों ने मंदिर में शिवलिंग को छुआ, तब करपात्री महाराज ने इसका विरोध किया था। उन्होंने विश्वनाथ मंदिर को अछूत घोषित कर दिया और काशी में ही गंगा के तट पर एक दूसरा काशी विश्वनाथ बनवा डाला था।

इन्हीं करपात्री महाराज के सान्निध्य में निश्चलानंद ने भी संन्यास ग्रहण किया है। ऐसे में इस पुराने विवाद को नरेंद्र मोदी के रामलला की मूर्ति के स्पर्श करने को लेकर शंकराचार्य की जताई जा रही कथित आपत्ति से जोड़कर देखा जा रहा है।

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