होलिका दहन : हर गांव में ‘अरंड का पेड़’ गाड़ने की है परंपरा
रायपुर । छत्तीसगढ़ के गांव-गांव में होलिका दहन करने से पूर्व उस जगह पर ‘अरंड पेड़’ की डाली जमीन में गाड़ने की परंपरा निभाई जाती है। ग्रामीण अंचलों में इसे अंडा पेड़ के नाम से जाना जाता है। सदियों से इस परंपरा का पालन पुरानी बस्ती के प्रसिद्ध महामाया मंदिर में विधिवत पूजा-अर्चना के साथ बसंत पंचमी के दिन किया जाता है। इसे ‘डाड़ गाड़ना’ भी कहा जाता है। जिन जगहों पर किसी कारणवश बसंत पंचमी के दिन यह परंपरा पूरी नहीं हो पाती वहां पर होलिका दहन से एक दिन पहले अवश्य अरंड पेड़ गाड़कर वहीं पर लकड़ियां एकत्रित की जाती है।
राजधानी के पुरानी बस्ती इलाके में स्थित पांच हजार साल पुराने महामाया मंदिर के पुजारी पंडित मनोज शुक्ला बताते हैं कि मंदिर में सैकड़ों साल से यह परंपरा निभाई जा रही है। मां महामाया, मां सरस्वती, मां काली की विद्वान पंडितों के सानिध्य में विधिवत पूजा-अर्चना करने के बाद अरंड पेड़ को गाड़कर पेड़ की भी पूजा करने की परंपरा निभाई जा रही है। 40 दिनों तक इसी जगह पर मोहल्ले के बच्चे, युवा लकड़ियां एकत्रित करके रखते हैं और होली के एक दिन पूर्व होलिका दहन किया जाता है।
महामाया मंदिर में सबसे पहले श्रेष्ठ मुहूर्त में होलिका दहन किया जाता है। इसके बाद यहां से अग्नि ले जाकर दूसरे मोहल्लों में होलिका दहन किया जाता है। यह परंपरा भी सालों से निभाई जा रही है।
अरंड नाम के पेड़ की ऊंचाई ज्यादा नहीं होती। यह हर गांव, शहर में आसानी से उपलब्ध हो जाता है। आयुर्वेद में इस पौधे को शेर की उपाधि दी गई है क्योंकि अरंड के पौधे का हर एक हिस्सा रोगनाशक होता है। जड़ से लेकर पत्ता, तना, फल सभी का इस्तेमाल विभिन्न रोगों के उपचार में किया जाता है।
शिशिर ऋतु के बाद वसंत ऋतु का आगमन होने के समय संधिकाल में कई प्रकार के जीवाणु, कीटाणु एवं रोगाणु पनपने लगते हैं इसीलिये अरंडी के पेड़ की पूजा करके वहीं पर होलिका के लिये लकड़ी, कंडे आदि एकत्रित करने की शुरुआत की जाती है।