कोरबा में जिस खाद कारखाने की नींव इंदिरा गांधी ने रखी थी, उसे केंद्र सरकार ने किया नीलाम
कोरबा। 1973 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कोरबा में खाद कारखाने का उद्घाटन किया था. जिसे केंद्र सरकार ने करीब 15 दिन पहले नीलाम कर दिया है. 1970 से लेकर इन 4 दशकों के बीच कारखाना एक दिन भी नहीं चल सका. कारखाने को चलाने के लिए मशीनें रूस से मंगाई गई थी. इन 4 दशकों में कांग्रेस और बीजेपी दोनों को सत्ता मिली लेकिन इस कारखाने को शुरू नहीं किया जा सका. कारखाने के प्रति सभी सरकारों का उदासीन रवैया रहा. लेकिन नीलामी के बाद इस कारखाने को लेकर सियासत चरम पर है.
46 साल पहले कारखाने की स्थापना के लिए आधारशिला तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रखी थी. अब उसके कलपुर्जे कबाड़ में तब्दील हो चुके हैं. उसे केंद्र ने 13 करोड़ 84 लाख रुपए में कोलकाता की कंपनी को बेच दिया है. ऐसा माना जा रहा है कि अब कारखाने के दोबारा शुरू होने की संभावनाएं लगभग समाप्त हो गई है.
साल 2015-16 और 2017 में तत्कालीन कोरबा सांसद डॉक्टर बंशीलाल महतो की पहल पर तत्कालीन केंद्रीय उर्वरक एवं रसायन राज्य मंत्री हंसराज अहीर और दूसरी बार केंद्रीय राज्य मंत्री मनसुख मंडाविया भी पहुंचे थे. केंद्रीय मंत्री ने कहा था कि 12 लाख मीट्रिक टन सालाना यूरिया का उत्पादन कर सकने वाले संयंत्र की स्थापना होगी. जिस पर तकरीबन 9000 करोड़ रुपए की लागत आएगी. इस परियोजना को कोयला और नई जर्मन तकनीक पर शुरू किया जाएगा. यह भी कहा था कि इसे पीपीपी के तहत सार्वजनिक उपक्रमों के सहयोग से पुनर्स्थापित किया जाएगा.
जिसके बाद विशेषज्ञों की टीम ने खाद कारखाने का निरीक्षण कर इसे फिर से शुरू करने की संभावनाएं तलाशी. जिसमे अमेरिकी कंपनी के आईपीएल के तकनीकी विशेषज्ञ रिचर्ड स्टोन, निदेशक शांता शर्मा, प्रबंधक सौम्या के साथ एपीएनसी कंपनी के निदेशक शामिल थे. तब भी कहा गया था कि जमीन पहले से उपलब्ध है. पानी और कोयला की प्रचुरता होने से खाद कारखाने को शुरू करने के लिए यहां उपयुक्त माहौल है. हम रिपोर्ट सरकार को देंगे.
खाद कारखाना खोलने के लिए तत्कालीन मध्य प्रदेश सरकार ने 1973 में 900 एकड़ भूमि आवंटित की थी. छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद एफसीआई की आवासीय परिसर के लिए आवंटित जमीन को एचटीपीपी विस्तार परियोजना को सौंप दिया गया. वर्तमान में लगभग 300 एकड़ जमीन शेष बची है. जिसमें अब घने जंगल उग आए हैं. खाद कारखाने के भीतर एक जंगल जैसा वातावरण निर्मित हो गया है. कारखाना शुरू करने के लिए तब रूस के चेकोस्लाविया से मशीनें जिले में आयात की गई थी. दुर्भाग्यवश यह 1 दिन भी नहीं चल सका.
खाद कारखाने के विषय में एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि, इसे शुरू करने के लिए तब केंद्र सरकार ने 475 अधिकारी कर्मचारियों की नियुक्ति की थी. इनमें से अधिकतर कर्मचारियों को रहने के लिए कोसाबाड़ी में आवास भी बना कर दिया गया था. जहां अब भी कुछ कर्मचारी और उनके परिजन निवास करते हैं. कई कर्मचारी ऐसे हैं, जिन्हें जीवन भर सरकारी वेतन मिलता रहा, लेकिन ड्यूटी 1 दिन भी नहीं की और साल 2003 में इन सभी को सरकार ने अनिवार्य सेवानिवृत्ति देकर कार्यमुक्त कर दिया था.
चार दशकों के दौरान खाद करखाना शुरू तो नहीं हो सका. लेकिन यहां लाई गई भारी-भरकम मशीन कोरबा जिले के कबाड़ चोरों के लिए वरदान साबित होती रही. इसमें कोई शक नहीं है कि खाद कारखाने में वर्तमान में जितनी भी कबाड़ युक्त मशीनें मौजूद हैं, उतनी ही मशीनों को कबाड़ की चोरी करने वाले लोग काट-काट कर ले गए हैं. औद्योगिक जिला होने के कारण कोरबा जिले में अवैध कबाड़ का गोरखधंधा लंबे समय से संचालित है.
खाद कारखाने के स्क्रैप की नीलामी के बाद बीजेपी और कांग्रेस के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी शुरू हो चुका है. कांग्रेस आरोप लगा रही है कि अरबों की मशीनों को केंद्र ने कौड़ियों के दाम निजी कंपनी को नीलाम कर दिया है. जबकि बीजेपी का कहना है कि ज्यादातर समय तो देश मे कांग्रेस की सरकार रही, उन्हें खाद कारखाना शुरू करा लेना चाहिए था. अब मशीनें खराब हो चुकी हैं. इसकी नीलामी कर कोई बेहतर विकल्प तलाशने के लिए सरकार ने यह प्रक्रिया अपनाई है. दूसरी तरफ रिटायर्ड कर्मचारियों का कहना है कि वर्तमान सरकार का फोकस निजीकरण पर है. कभी भी खाद कारखाने को शुरू कराने के लिए ठीक तरह से पहल नहीं की गई है.