वोट के बदले नोट का मामला : सुप्रीम कोर्ट ने पलटा 1998 का फैसला, समझिए पूरा मामला
नईदिल्ली। अगर कोई विधायक या सांसद पैसे लेकर सदन में भाषण या वोट दे तो क्या उस पर मुकदमा चलेगा या फिर इस तरह के रिश्वत वाले मामले में उसको बतौर जनप्रतिनिधि हासिल प्रिविलेज (विशेषाधिकार) के तहत कानूनी कार्रवाई से छूट होगी?
7 जजों की संविधान पीठ ने आज इस बेहद अहम मामले पर सर्वसम्मति से फैसला सुना दिया. 7 सदस्यीय पीठ ने 1998 के ‘पीवी नरसिम्हा राव मामले’ के फैसले को पलट दिया और साफ तौर पर कहा कि ‘रिश्वत मामलों’ में MP-MLA मुकदमे से नहीं बच सकते.
‘राजनीति में नैतिकता’ के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने इसको बेहद महत्त्वपूर्ण मामला माना था. पिछले साल 5 अक्टूबर को दो दिन की सुनवाई के बाद सर्वोच्च अदालत ने ‘सीता सोरेन बनाम भारत सरकार’ मामले में फैसला सुरक्षित रख लिया था.
देश की सबसे बड़ी अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 105(2) और 194(2) के तहत सांसदों और विधायकों को हासिल विशेषाधिकार के दायरे की व्याख्या की है और 1998 के नरसिम्हा जजमेंट संविधान को अनुच्छेद 105(2) और 194(2) की गलत व्याख्या करार दिया है.
तकरीबन पांच महीने पहलेCJI डी वाई चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस एएस बोपन्ना, जस्टिस एमएम सुंदरेश, जस्टिस पीएस नरसिम्हा, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने इस केस की सुनवाई की थी.
क्या था 1998 का SC का फैसला?
करीब 25 साल पहले सर्वोच्च अदालत ने ‘पीवी नरसिम्हा राव बनाम सीबीआई मामले’ में सदन में ‘वोट के बदले नोट’ मामले में सांसदों को मुकदमे से छूट की बात कही थी. रिश्वतखोरी के मामलों में 3:2 के बहुमत से पांच जजों की पीठ ने तब ये तय किया था कि सांसदों को अनुच्छेद 105 (2) और 194(2) के तहत सदन के अंदर दिए गए किसी भी भाषण और वोट के बदले आपराधिक मुकदमे से छूट है.
एक दूसरे मामले की वजह से ‘सदन में वोट के बदले नोट’ का फैसला पुनर्विचार के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. पिछले साल 20 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने मुकदमेबाजी से छूट वाले 1998 के फैसले पर फिर से विचार करने की बात की. 1998 का फैसला चूंकि 3:2 की बहुमत से पांच जजों की बेंच ने सुनाया था. इसलिए उस फैसले पर पुनर्विचार कोई बड़ी बेंच ही कर सकती थी. लिहाजा 7 जजों की बेंच अस्तित्व मे आई और उसने अगले ही महीने सुनवाई पूरी कर ली.
पिछले साल भारत सरकार का पक्ष सुप्रीम कोर्ट में अटॉर्नी जनरल, सॉलिसिटर जनरल ने रखा था जबकि अदालत की मदद के लिए एमिकस क्यूरी के तौर पर पीएस पटवालिया पेश हुए.
इस मसले पर 1993 से लेकर अब तक तकरीबन 30 बरस चली अदालती कार्रवाई के दौरान एक कॉमन कड़ी झारखंड मुक्ति मोर्चा और शिबू सोरेन का परिवार रहा.. 1993 मामले में सीबीआई ने शिबू सोरेन को रिश्वत कांड में आरोपी माना था. जबकि सुप्रीम कोर्ट में हालिया सुनवाई उनकी बहू सीता सोरेन से जुड़े घूसकांड को लेकर हुई.
आइये शिबू सोरेन और सीता सोरेन वाले दोनों मामलों को एक-एक कर समझते हैं.
शिबू सोरेन मामला और सुप्रीम कोर्ट
1991 का आम चुनाव हुआ. परिणामों में कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ी राजनीतिक दल के तौर पर उभरी. नरसिम्हा राव की सरकार बनी. पर जुलाई 1993 के मॉनसून सत्र के दौरान राव की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया. शिबू सोरेन और उनकी पार्टी के चार सांसदों पर सनसनीखेज आरोप लगे कि उन्होंने रिश्वत लेकर लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ वोटिंग की.
सीबीआई ने इन सांसदों के खिलाफ जांच शुरू की लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 105(2) के तहत उन्हें कानूनी कार्रवाई से मिली छूट का हवाला देते हुए इस मामले ही को रद्द कर दिया. अदालत ने कहा तब कहा कि अनुच्छेद 105(2) और अनुच्छेद 194(2) का मकसद ही ये है कि संसद और राज्य की विधानसभाओं के सदस्य बगैर किसी चिंता या डर के स्वतंत्र माहौल में भाषण या फिर वोट दे सकें.
सीता सोरेन मामला और सुप्रीम कोर्ट
ये मामला 2012 राज्यसभा चुनाव का है. झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की भाभी सीता सोरेनतब जामा सीट से विधायक थीं. सीता सोरेन पर आरोप लगा कि उन्होंने चुनाव में वोट देने के लिए रिश्वत ली. सीता सोरेन पर आपराधिक मामला दर्ज हुआ. उन्होंने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और मामला रद्द करने की मांग की मगर उच्च न्यायालय ने उनकी अपील खारिज कर दी. 17 फरवरी, 2014 के आदेश में रांची हाईकोर्ट ने आपराधिक मामले को रद्द करने से इनकार कर दिया.
हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ सीता सोरेन ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई. सीता सोरेन ने 1998 के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि जिस तरह उनके ससुर को कानूनी कार्रवाई से छूट मिली थी, देश का संवैधानिक प्रावधान उन्हें भी सदन में हासिल विशेषाधिकार (प्रिविलेज) के तहत कानूनी कार्रवाई से छूट देती है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आज न सिर्फ सीता सोरेन के तर्कों को गलत माना बल्कि 1998 के पांच जजों के फैसले को भी पलट दिया.
कोर्ट का 1998 के फैसले को पलट देना सीता सोरेन समेत और कई जनप्रतिनिधियों की राजनीतिक भविष्य पर असर डाल सकता है.