आलेख : आशावादी बातें कहने वाले सुशांत सिंह कैसे जीवन से हार गए?
विनोद वर्मा
ज़िंदगी की दौड़ अजीब होती है. कब कौन कहां और कैसे जीतेगा और कैसे हार जाएगा, कुछ कहा नहीं जा सकता. अच्छी खासी गति से भाग रहा एक धावक एकाएक गिर पड़ता है. शायद धावक का मन हार जाता है.
सुशांत सिंह राजपूत के साथ भी ऐसा ही हुआ. अभी तो उन्होंने दौड़ना शुरु ही किया था. अभी तो उनकी उड़ान बची हुई थी. उनके साथियों और सहकर्मियों ने अपने जो अनुभव साझा किए हैं, उससे लगता है कि उनके भीतर का अदाकार अभी एक लंबी रेस के लिए तैयार हो रहा था. उनमें अभी बहुत अभिनय बचा हुआ था.
अगर अमिताभ बच्चन से लेकर मनोज वाजपेयी तक सब लोग उनसे प्रभावित थे तो यह अकारण नहीं था.
ये ठीक है कि वे ज़िंदगी के उन सब अनुभवों से भी गुज़र ही रहे थे जिससे आमतौर पर हर किसी को गुज़रना होता है. प्रेम-विरह, वफ़ा-बेवफ़ाई, सुख-दुख, सफलता-विफलता, भीड़ और एकाकीपन. लेकिन एक रचनात्मक व्यक्ति के लिए या एक कलाकार के लिए जीवन के अनुभव कहीं-कहीं अनुपातहीन होते दिखाई पड़ते हैं. यह कहना मुश्किल है कि प्रेम संबंध का टूटना हर किसी के लिए एक जैसा अनुभव होता होगा. या कि पेशागत विफलता को हर कोई एक ही तरह से देख या झेल सकता है. वे अक्सर अवसाद से घिर जाते हैं.
और भी गए इस राह परगुरु दत्त क्यों हार गए थे? या मैरिलिन मनरो क्यों हार गई थीं? वैन गॉग ने ख़ुद को क्यों गोली मार ली थी? विकीपीडिया पर सुप्रसिद्ध अदाकारों, संगीतकारों, वैज्ञानिकों और चित्रकारों की एक लंबी सूची मिलती है, जिन्होंने आत्महत्या का रास्ता चुन लिया. जिनका जीवन दूसरों के लिए प्रेरणा है वे ख़ुद अपने जीवन से हार गए.
सुशांत सिंह राजपूत ने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में कहा था, “मुझे फ़िल्में नहीं मिलेंगी तो मैं टीवी करना शुरू कर दूंगा और अगर टीवी नहीं मिलेगा तो थिएटर की तरफ़ लौट जाऊँगा. थिएटर में मैं 250 रुपए में शो करता था. मैं तब भी ख़ुश था, क्योंकि मुझे अभिनय करना पसंद है. ऐसे में असफल होने का मुझे डर नहीं है.” यक़ीन तो नहीं होता कि ऐसी बात करने वाला कोई व्यक्ति पेशेगत विफलता या ठहराव से हार सकता है. उनकी बातों में हार नहीं थी, लेकिन वे हार गए.
और फिर जीवन का यही एक पहलू तो नहीं होता. ख़ासकर इस समय के जीवन में जिसमें हर कोई जीतने के लिए ही दौड़ना चाहता है. हर कोई कम से कम समय में सब कुछ इस तरह से हासिल कर लेना चाहता है मानों दुनिया ख़त्म होने वाली हो. बच्चों को हम इसी तरह से पालते पोसते हैं, “तुम ले लो वरना कोई और आकर ले जाएगा…. तुम छूट जाओगे.” छूट जाने का यह डर भी मन में कई विकार पैदा करता है.
अभी यह कहना मुश्किल है कि सुशांत सिंह राजपूत जैसा पढ़ा लिखा, अंतरिक्ष और विज्ञान की बातें करने वाला, प्रगतिशील विचारों वाला व्यक्ति किस बात पर निराश हो गया, कहां हार गया. शायद इसका कभी पता न चले कि क्या हुआ था.
लेकिन यह बात तो बहुत से लोगों को पता थी कि वे अवसाद से गुज़र रहे हैं. क्यों समय रहते उनको कोई संभालने नहीं पहुंचा? क्यों उन्हें निराशा के गहरे अंधे कुएं से कोई निकाल कर न ला सका? क्या हम सब इतने आत्मकेंद्रित हो गए हैं कि हमें अपने आसपास के लोगों के अवसाद की भी चिंता नहीं होती?
( लेखक पत्रकार हैं और इस समय छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के राजनीतिक सलाहकार हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)