पत्रकारिता का मूत्र–काल : अतीक अहमद के टीवी कवरेज ने जितना शर्मसार किया वह अभूतपूर्व है
रुचिर गर्ग
एक माफिया अतीक अहमद के टीवी कवरेज के बारे में सुना तो आज कुछ पोस्ट्स बहुत तकलीफ के साथ लिख दीं. ऐसी भाषा लिखना, जिसके पक्षधर आप खुद भी न हों, बहुत तकलीफ देता है. क्योंकि यह सब सस्ते कटाक्ष से ज्यादा कुछ नहीं होता, पर अतीक अहमद के टीवी कवरेज ने जितना शर्मसार किया है वह अभूतपूर्व है.
रेटिंग की भूख कहें या अडानी से ध्यान बांटने की कोशिश या राहुल गांधी को स्पेस न देने की साजिश… जो भी हो आज की यह पत्रकारिता लोकतंत्र के ताबूत को ढोने वाली बड़ी ताकत बन रही है. मन में सवाल उठ रहा है कि हमने–आपने आजादी की लड़ाई तो नहीं लड़ी, लेकिन क्या हम इस आजादी को गंवाने का जुर्म अपने सीने पर टांगने वाले हैं ?
गुलामी आज अंग्रेज के नाम से नहीं आ रही है. आज की गुलामी मूढ़ता और अवैज्ञानिकता के रास्ते, सांप्रदायिकता, नफरत और अंधविश्वास पर सवार हो कर उन्माद के हथियार के साथ आ रही है. इस गुलामी की मंजिल तानाशाही है और यह सामने दिख रही है. जी बिल्कुल सामने ही… आपके टीवी स्क्रीन पर! आप न देख पा रहे हों तो यह निकट दृष्टि दोष है.
ये आर्यभट्ट और वराहमिहिर का देश है. ये सीवी रमन, होमी जहांगीर भाभा, विक्रम साराभाई,अब्दुल कलाम जैसों का देश है. ये जगदीश चंद्र बसु से लेकर जयंत नार्लीकर और सलीम अली तक का देश है. ये मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या का देश है. ये रामानुजन और हरगोविंद खुराना का देश है. ये देश शांति स्वरूप भटनागर का है. ये कबीर और रसखान का देश है. ये गांधी, नेहरू और टैगोर का देश है. सूची इतनी लंबी है कि पढ़ते-पढ़ते हमें अपने वर्तमान पर शर्म आएगी. ये वो थे जिन्हें गर्व से हम अपनी वैज्ञानिक चेतना के पहरेदार कहते हैं– आज भी.
दुर्भाग्य से आज इस सूची की चर्चा भी उस दिन हो रही है जब तीन साल पहले पूरे देश को कोरोना के दौरान ताली थाली बजाते हुए अवैज्ञानिकता के घूरे में धकेल दिया गया था! हम सबने टीवी पर देखा ही था. इस अवैज्ञानिकता के प्रसार में आज देश का मीडिया जितनी शिद्दत से लगा है उसकी मिसाल शायद ही दुनिया में कहीं मिले. विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक के मामले में आज हिंदुस्तान तलहटी में जगह तलाश रहा है, यही तो इस देश की पत्रकारिता का मूत्र–काल है!
आज भारतीय मीडिया की शिनाख्त सिर्फ अवैज्ञानिकता का ढोल पीटने वाले ढोलचियों में नहीं होती बल्कि सत्ता के सामने रेंगते ऐसे कार्पोरेट मीडिया की तरह होती है जिस पर बाकायदा जनांदोलनों को कुचलने का, विपक्ष की आवाज को दबाने का, कार्पोरेट सेवा में लीन रहने का संगीन आरोप है. ऐसा मीडिया ना लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छा है ना देश के लिए, सच तो यह है कि किसी एक देश में मीडिया की दुर्दशा हर उस लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए हानिकारक है जो दुनिया में कहीं भी अस्तित्व में हो.
हमारी राजनीतिक पसंद,नापसंद अलग–अलग हो सकती है. हम ढेर सारे मतभेदों के बीच सद्भाव के साथ जीने वाला समाज होना चाहते हैं. हम मतभेदों का सम्मान करने वाले समाज हों तो यह देश की ताकत होगा. लेकिन हमको कूढ़ मगज समाज बनाने की साजिशें हों तो सतर्क होना चाहिए और सोचना चाहिए कि ऐसी साजिशें क्या सिर्फ व्यवसायिक जरूरत हैं ? नहीं!
दरअसल ऐसी साजिशें देश को तानाशाही के रास्ते ढकलने का जतन हैं. दुर्भाग्य से आज मीडिया और खासतौर पर टीवी तो ऐसी साजिशों के लिए बड़ा औजार बन गया है. आजादी के बाद तो लक्ष्य यही था कि देश ज्ञान के रास्ते आधुनिक समाज की नींव रखने के इरादे से आगे बढ़े, लेकिन वो कौन हैं जो आज आधुनिक, वैज्ञानिक और नए नए अविष्कार करते समाज की जगह कूपमण्डूक समाज चाहते हैं ? और क्या मीडिया नासमझी में इस चाहत का साथी बन बैठा है ?
आपको आज के न्यूजरूम की कार्यप्रणाली को बहुत गंभीरता से समझना होगा. अगर लोकतंत्र की ताजी हवा चाहिए तो आज के न्यूजरूम की घुटन को महसूस करना होगा और इस बारे में जागरूक भी होना होगा. आज का न्यूजरूम आमतौर पर देश की एक ऐसी सरकार चला रही है जिसके इरादें साफ हैं.
छोटे, कम पूंजी के मीडिया हाउस फिर भी किसी तरह खुद को बचा कर रखे हुए हैं, पर बड़ी पूंजी और सत्ता–कार्पोरेट जुगलबंदी ने एक ऐसा मीडिया खड़ा कर दिया है जो देश को, इस महान देश को, इस लोकतंत्र को, अभूतपूर्व शहदातों, त्याग और बलिदान से हासिल इस महान लोकतंत्र को सीमित हाथों में सौंपने की साजिशों का कठपुतली बन गया है!
पूछिए अपने आप से कि इस मीडिया में अब खोजी पत्रकारिता की जगह हिंदू-मुसलमान ने या दंगा भड़काऊ खबरों ने क्यों ले ली है? इसी सवाल में आज के बहुत से, बल्कि अधिकांश बड़े न्यूजरूम की हकीकत की हकीकत छिपी है. अपने आसपास , अपने परिचित या किसी रिश्तेदार से जो रिपोर्टर है, बड़े सपने के साथ पत्रकारिता करने आया है उसके सपनों का हश्र जानिए.
फर्स्ट हैंड सूचनाएं लीजिए, खुद एहसास होगा कि कैसे एक बड़े डिजाइन के आप भी टूल बनते जा रहे हैं. पढ़िए उन पत्रकारों को जो सीमित संसाधनों के बीच सोशल मीडिया पर पत्रकारिता को जिंदा रखे हुए हैं उसमें जी रहे हैं. ऐसे ढेर सारे पत्रकार हैं जो हिंडनबर्ग रिपोर्ट से पहले ही अडानी की करतूतें खोल रहे थे लेकिन वो किसी बड़े न्यूज रूम का हिस्सा नहीं थे. हो नहीं सकते थे.
एक बड़े अखबार ने कोरोना काल में हौसला दिखाया था, लेकिन उस हौसले पर बुलडोजर चल गया. बीबीसी का मामला तो ताजा है. न्यूजरूम आज रेवेन्यू से अधिक एक देश की ताकतवर सत्ता के आगे दम तोड रहा है. जैसे-जैसे न्यूज रूम का दम निकलेगा, वैसे वैसे लोकतंत्र भी कमज़ोर ही होगा. कमज़ोर न्यूज रूम लोकतांत्रिक आकांक्षाओं का कमरा नहीं रह जाता. वहां सिर्फ सत्ता की स्वर लहरियां और ईमानदार, पर बेबस पत्रकारों का रूदन ही गूंजता है.
यह सब आपको अंधेरे में रखने के लिए, आपको अंधेरे में रख कर हो रहा है. राहुल गांधी जब लोकतंत्र की चिंता करते हैं और उस चिंता के मुकाबले अतीक अहमद का मूत्र विसर्जन जब सबसे बड़ी खबर बन जाए तो सबसे पहले चिंतित आपको होना चाहिए. क्योंकि पत्रकारिता का यह मूत्र–काल लोकतंत्र के विनाश का काल बनने में पूरी मदद करेगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के मीडिया सलाहकार हैं)