March 15, 2025

पहले बोली की गोली, फिर कहत हौ- बुरा न मानो होली है… अबकी बार ये कैसी ठिठोली!

holi11
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बुरा न मानो होली है… क्यों कहा जाता है समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन-सा लगता है. कमाल है रंगों का त्योहार भी. उलटबांसियां ही उलटबांसियां. जितना उल्टा-पुल्टा उतना मजा दोगुना. किसी को भी रंगों से सराबोर कर देते हैं, फिर कहते हैं- बुरा न मानो होली है… जी भर के भड़ास निकाली जाती हैं, बोलियों की गोलियां चलाई जाती हैं, पिचकारी से बम फोड़ देते हैं, फिर कहते हैं- बुरा न मानो होली है… गड्ढ़ा खोदकर गिरा दिया जाता है, फिर कहते हैं- बुरा न मानो होली है… दीवारें तोड़ घर ढहा दिया जाता है, फिर कहते हैं- बुरा ना मानो होली है. पार्टी तोड़ सरकार बना ली जाती है, फिर कहते हैं- बुरा न मानो होली है. फ्री फ्री के वादे करके मुकर जाते हैं, फिर कहते हैं- बुरा न मानो होली है.

भई बुरा क्यों न मानें, जो देश और सेहत हित में नहीं, उसे हम बुरा क्यों न मानें! जो मोहब्बत और इंसानियत के हित में नहीं, उसे हम बुरा क्यों न मानें! जो लोकतंत्र और संविधान हित में नहीं, उसे हम बुरा क्यों न मानें! तीर चलाओ तो जख्म होगा, और तो और जख्म पर नमक भी डाल देंगे, फिर कहेंगे- बुरा न मानो होली है. भई कमाल है! काटो मगर उफ्फ ना करो. दर्द दिये जा रहे हैं, फिर भी कहते हैं- बुरा न मानो होली है. सारी हदें पार कर रहे हैं, फिर भी कहते हो- बुरा न मानो होली है. होली अबकी कैसी हो ली! होली कम ज्यादा ठिठोली.

तेरा मुंह मेरे मुंह से चिकना क्यों?
सालों पहले सिनेमावालों ने गाया- दिल को देखो, चेहरा न देखो… चेहरे ने लाखों को लूटा… फिर भी साल भर ब्यूटी पार्लर दौड़-दौड़ कर लोग फेशियल करवाते हैं, चेहरे पर रंग औ’ नूर का ग्लो लाने के लिए ना जाने क्या-क्या जतन करते हैं, ब्यूटी प्रोडक्ट्स के बाजार का बोलवाला बढ़ जाता है. कभी अच्छा दिखने की होड़, कभी बुरा दिखने की हुल्लड़. होली के दिन सबके सब चेहरे को चितकोबरा बनाने के लिए बेचैन रहते हैं. जिसका भी साफ चेहरा दिखे, सहन नहीं होता. तेरा मुंह मेरे मुंह से इतना चिकना क्यों- ईर्ष्या इतनी ज्यादा होती है कि हर साफ सुथरे चेहरे को खराब करने की मुहिम शुरू हो जाती है. फिर कहते हैं- बुरा न मानो होली है…

रंगीन मिजाज हैं तो रंगों से दूरी क्यों?
अब होली पर जोगीरा सा रा रा रा कम होता है, राजनीति ज्यादा रगड़ी जाती है. और वो भी रंगों की राजनीति. जितने रंग उतने तरह की राजनीति. कहीं रंग देने की राजनीति तो कहीं रंग से बचने की राजनीति. भई, हम भूल क्यों जाते हैं कि रंग तो प्रकृति की देन होते हैं. रंगों के बिना जीवन सूना होता है. लाइफ में जितने रंग, जिंदगी उतनी हसीन. रंगीन मिजाज तो होना चाहते हैं लेकिन रंगों से दूर भागते हैं. ये तो डबल स्टैंडर्ड है. ये नहीं चलेगा. ये भाई… मेरे भाई.

अब लोग होली पर रंग ना खेले तो क्या करे, कीचड़ उछालें! समझना चाहिए कि अगर हम साल भर रंग नहीं खेलते इसलिए एक दिन रंग खेलते हैं तो इसी तरह जब साल भर राजनीति करते हैं तो कम से कम होली पर एक दिन इसे भी बख्श दे सकते हैं. लेकिन शोले में बसंती ने कहा था न, घोड़ा अगर घास से दोस्ती कर लेगा तो खाएगा क्या! शायद हमारे सियासतदानों ने बसंती को अपना आदर्श मानते हुए इस वाक्य को जीवन मंत्र बना लिया, इसीलिए सियासी होने का फर्ज अदा करते रहते हैं, जियें तो जिये कैसे बिन राजनीति के.

होली खेलें, जज्बातों की ठिठोली ना करें
कहते हैं होली के दिन सब माफ होता है. फागुन में बुढ़वा भी देवर लगता है. होली पर अश्लीलता में भी अपना एक अलग ही सौंदर्यबोध है. ना उम्र की सीमा, ना जन्म का बंधन… हर कोई एक-दूसरे से इश्क फरमाने लगता है… मोहब्बत का ऐसा मेगामॉल खुल जाता है, जहां हर माल फ्री मिल रहा हो. मानो दो ही रिश्ते दिखते हैं- जीजा और साली या कि देवर और भाभी. लेकिन नेता और जनता का इश्क सबसे जुदा होता है. हर पांच साल के बाद प्रेम की सुनामी उमड़ आती है. गालियां तारीफों के फूल बन जाते हैं. शायद फिल्मों में इसीलिए गाना बना- आज मीठी लगे है तेरी गाली रे… या फिर दुश्मन भी गले मिल जाते हैं.

…तो होली पर जितना हो सके गले मिलिए और मिलाइए लेकिन न काटिये न तिलमिलाइए. रंगों की होली खेलें, जज्बातों की ठिठोली न करें. होली मुबारक.

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