क्या आपने इसे चखा है : जानिए क्यों खास है बस्तर की ‘चापड़ा चटनी’
कोंडागांव। छत्तीसगढ़ का बस्तर अपनी पारंपरिक वेशभूषा संस्कृति और विशेष रहन-सहन के लिए पुरे विश्व में विख्यात है। लेकिन बस्तर का परिचय सिर्फ आदिवासी संस्कृति से ही पूरी नहीं होती, बस्तर के आदिवासी अपने खास पारंपरिक व्यंजनों के लिए भी विख्यात हैं। वैसे तो आपने आम, टमाटर, इमली, सहित कई तरह की चटनी के विषय में अक्सर सुना, देखा और खाया भी होगा। इन्हीं पारंपरिक व्यंजनों में से एक कोंडागांव की जहां केरावाही गांव के ग्रामीण ‘चापड़ा चटनी’ का स्वाद बताने जा रहे हैं।
बस्तर के जंगलों में बहुतायत में सरई, आम-जामुन अन्य पेड़ पाए जाते हैं. इनकी टहनियों पर एक विशेष प्रकार की चीटी पाई जाती है। जिसकी चटनी बनाकर यहां के ग्रामीण बड़े चाव से खाते हैं। इसे ‘चापड़ा चटनी’ कहा जाता है। इसे यहां के रहवासी के अलावा पर्यटक भी इसका स्वाद चखते हैं।
विशेष प्रकार की पाई जाने वाली चीटी का रंग हल्का लाल या भूरा होता है। जिसे स्थानीय भाषा में हलिया, चापड़ा, चपोड़ा या चेपोड़ा कहा जाता है। ये चीटी मीठे तनी वाले सभी वरिस्खों के शाखाओं में पाई जाती है। वृक्ष की पत्तियों को अपने विशेष प्रकार के लार से जोड़कर घोसला या गुड़ा बनाती है। जिसे गुड़ा या जयपुरा चिपटा कहा जाता है। ग्रामीणों का इसका इतना अनुभव है कि इस गुड़ा या घोसला के रंग के आधार पर सटीक अनुमान लगाकर परख लेते हैं कि, चापड़ा खाने लायक हो चुका है। इसी चापड़ा या लाल चीटी से विश्व प्रसिद्ध लजीज चापड़ा चटनी बनाई जाती है।
ये चीटियां गुड़ा या घोंसला में अंडे देती हैं और ग्रामीण आदिवासी इन घोंसला को देखकर अनुमान लगा लेते हैं कि, इन घोंसला या गुड़ा में चीटियों ने अंडे सहेजें हैं और वह खाने लायक हो गए हैं। साल के मार्च-अप्रैल और मई की गर्मी में यह चापड़ा चीटियां ज्यादा अंडे देती हैं और गर्मियों में इन चापड़ा चीटियों के चटनी और अंडे की सब्जी के सेवन से ताकत शरीर को मिलती है ऐसा ग्रामीण आदिवासियों का मानना है।
चटनी बनाने के लिए चापड़ा चीटी को उसके गुड़ा या घोसला से निकालना जरूरी होता है। इसके लिए पेड़ की टहनी को जिस पर चापड़ा चीटियां अपना घोसला बनाती हैं, उसे काट कर अलग किया जाता है। इसके लिए पेड़ के नीचे लूंगी, चादर या जाल में गिराया जाता हैं। ताकि पेड़ों की ऊंची शाखों से गिरने के दौरान घोसला या गुड़ा के अंडे नहीं फूटे और चीटी अंडे को अलग-अलग किया जा सके।
चटनी बनाने के लिए चीटियों को गुड़ा से झड़ाकर पात्र या चादर में तेज धूप में छोड़ दिया जाता है। जिससे यह चीटियां तेज धूप में मर जाती हैं। चीटियों और अंडों को ग्रामीण अलग-अलग करते हैं। चीटियों की चटनी बनाई जाती है और इनके अंडों की सब्जी बनाई जाती है। अंडे और चीटियों को एक साथ पीसकर भी चटनी बनाई जाती है। वहीं अदरक, लहसुन, लाल मिर्च, हरी मिर्च, धनिया को पत्थर के सिल-बट्टे पर इन चीटियों के साथ पीसकर चटनी बनाई जाती है, जिसे मंड़िया पेज या भोजन के साथ या फिर ऐसे ही ग्रामीण आदिवासी बड़े चाव से खाते हैं।
बस्तर क्षेत्र में वर्ष भर चापड़ा चटनी का भोजन में भी आदिवासी प्रयोग करते हैं। वहीं अब चापड़ा चटनी का शहरी लोग भी इसका उपयोग कर रहे हैं। जिसके कारण शहरों के सब्जी बाजारों में यह अब उपलब्ध होने लगा है। यहां के स्थानीय भीषण गर्मी और लू से बचने के लिए गोर्रा जावा या मड़िया पेज के साथ चापड़ा चटनी का उपयोग करते हैं।
वहीं जानकार बताते हैं कि ‘चापड़ा चीटी उसके अंडों के कई मेडिसिनल वैल्यू है। गांव में आज भी बुखार के प्राथमिक उपचार के रूप में चापड़ा चीटी से कटवाया जाता है, जिससे बुखार उतर जाता है। चापड़ा चीटियों में फार्मिक एसिड नामक रसायन होता है। यहां के लोगों का मानना है कि चापड़ा चीटियां स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद हैं। इसके सेवन से मलेरिया, पित्त और पीलिया जैसी बीमारियों से आराम मिलने का दावा करते हैं.’ जानकारों का ये भी कहना है कि, ‘इसमें फार्मिक एसिड के कारण ही चटनी में खटास बढ़ जाती है। साथ ही प्रोटीन, कैल्शियम, विटामिन अन्य के भी यह चीटियां रिच सोर्सेस हैं, जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होने के साथ-साथ प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत कर रोगों से बचाव करने में मददगार होती हैं.’