रुपये की ये मजबूत ‘दहाड़’, क्या कराएगी भारत की इकोनॉमी का नुकसान?

नईदिल्ली। रुपया और डॉलर के बीच का खेल हर रोज खतरनाक होता जा रहा है. डॉलर जहां तिल-तिल करके टूट रहा है, तो रुपये की दहाड़ दूर तक सुनाई दे रही है. सोमवार को तो एक नया करिश्मा देखने को मिला करीब 73 दिन के बाद यानी करीब-करीब ढाई महीने के बाद डॉलर के मुकाबले रुपया 86 रुपये के भाव पर आ गया है. रुपये की ये मजबूती वैसे तो शानदार है, लेकिन कहीं ये इकोनॉमी को नुकसान तो नहीं पहुंचाएगी?
रुपये और डॉलर की एक्सचेंज वैल्यू का सीधा असर देश के ट्रेड पर पड़ता है. अगर रुपया मजबूत होगा तो हमें इंपोर्ट में फायदा होगा, लेकिन एक्सपोर्ट में नुकसान. ठीक इसी तरह रुपया अगर कमजोर होगा तो देश का एक्सपोर्ट लगातार बढ़ेगा. कमजोर रुपये का कनेक्शन एक्सपोर्ट से इतना गहरा है कि आजादी के बाद जब देश को एक्सपोर्ट बढ़ाना था तब सरकार ने खुद रुपये का डीवैल्यूएशन किया था.
मजबूत रुपये से इकोनॉमी को नुकसान
अगर रुपये की मजबूती को व्यापक पैमाने पर समझें, तो इससे इकोनॉमी को कई तरह से नुकसान पहुंचता है. खासकर के तब जब देश का एक्सपोर्ट घट रहा हो, इंपोर्ट बढ़ रहा हो और बेरोजगारी एक बड़ी समस्या हो.
कमजोर रुपये की वजह से भारत के प्रमुख एक्सपोर्ट सेक्टर जैसे कि अपैरल (रेडीमेड कपड़े), इंजीनियरिंग गुड्स, लेदर का सामान और हैंडिक्राफ्ट्स को फायदा पहुंचता है, क्योंकि विदेशों में इनकी डिमांड बढ़ती है. ये वो सेक्टर हैं जो कम पूंजी लागत से शुरू हो जाते हैं. छोटे से छोटे शहर और गांव के लेवल पर ज्यादा संख्या में रोजगार जेनरेट करते हैं, क्योंकि ये लेबर इंटेंसिव बिजनेस हैं. जहां मानव श्रम की जरूरत ज्यादा होती है. हालांकि इनका एक्सपोर्ट एक सीमित मात्रा में होता है. लेकिन ये सेक्टर ‘नेट एक्सपोर्टर’ हैं, क्योंकि इनके लिए कच्चे माल की जरूरत बाहर से नहीं पूरी करनी पड़ती है.
दूसरी ओर कई इकोनॉमी एक्सपोर्ट रुपये की मजबूती को जरूरी मानते हैं. उनका मानना है कि इससे ऑटोमोटिव, इलेक्ट्रॉनिक्स, फार्मास्युटिकल्स और पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स के एक्सपोर्ट को सपोर्ट मिलता है. इसकी वजह ये है कि इन प्रोडक्ट्स के उत्पादन के लिए काफी सारा कच्चा माल इंपोर्ट से आता है, तब जाकर फाइनल प्रोडक्ट तैयार होता है. ये सेक्टर ‘नेट इंपोर्टर’ हैं, इसलिए रुपये की मजबूती देश के इंपोर्ट के लिए फायदेमंद रहती है.
एक्सपोर्ट बढ़ने से रुपये को फायदा
अगर इकोनॉमी के आसान सिद्धांत को भी समझें तो भले रुपया कमजोर रहे, लेकिन एक्सपोर्ट बढ़ने से देश में ज्यादा डॉलर आता है. इससे हमारा ट्रेड बैलेंस बेहतर होता है. वहीं इंपोर्ट करने के लिए हमारी परचेजिंग पावर बढ़ती है. ये देश की इकोनॉमी को ज्यादा स्टेबल बनाता है.
करेंसी के कमजोर होने से एक्सपोर्ट को फायदा होता है. इसलिए अभी डॉलर के कमजोर होने का फायदा अमेरिकन इकोनॉमी को सबसे ज्यादा होने वाला है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी लगातार ये कोशिश कर रहे हैं कि डॉलर की वैल्यू कम हो ताकि उनका ट्रेड बैलेंस हो सके. अमेरिकन इकोनॉमी एक्सपोर्ट से ज्यादा इंपोर्ट करती हैं. उसका ट्रेड डेफिसिट पिछले 4 साल से लगातार 1 ट्रिलियन डॉलर से अधिक रहा है.
यही वजह है कि डोनाल्ड ट्रंप इंपोर्ट को कम करने के लिए टैरिफ वॉर छेड़ रहे हैं. अमेरिका को मैन्यूफैक्चरिंग हब बनाना चाहते हैं ताकि वहां रोजगार पैदा हो और इकोनॉमी को बूस्ट मिले. भारत के एक्सपोर्ट पर 2 अप्रैल के बाद ‘ट्रंप टैरिफ’ का क्या असर होता है, ये देखना होगा. इसके बाद रुपये की वैल्यू में बड़े बदलाव देखने को मिल सकते हैं.
भारत के एक्सपोर्ट-इंपोर्ट का हाल
भारत के एक्सपोर्ट को देखें तो इसमें बीते 4 महीने से गिरावट जारी है. हालांकि इंपोर्ट कम होने से ट्रेड डेफिसिट कम हुआ है. लेकिन ये एक और बुरे दौर की ओर संकेत करता है जो इकोनॉमी में डिमांड की कमी और मिडिल क्लास के घटते खर्च को दिखाता है.
फरवरी में भारत से गुड्स का एक्सपोर्ट लगातार चौथे महीने घटकर 36.91 अरब डॉलर रह गया है. पिछले साल फरवरी में देश का निर्यात (एक्सपोर्ट) 41.41 अरब डॉलर का था.हालांकि फरवरी में देश का व्यापार घाटा भी कम हुआ हीै और ये घटकर सिर्फ 14.05 अरब डॉलर रह गया है. इसकी सबसे बड़ी वजह देश के इंपोर्ट का कम होना है.
फरवरी में देश का इंपोर्ट कुल 50.96 अरब डॉलर का रहा है. बीते चार महीनों (नवंबर, दिसंबर-2024 और जनवरी,फरवरी-2025) में भारत के प्रोडक्शन एक्सपोर्ट में वैल्यू के आधार पर गिरावट दर्ज की गई है. जनवरी 2025 में एक्सपोर्ट सालाना आधार पर घटकर 36.43 अरब डॉलर, दिसंबर 2024 में 38.01 अरब डॉलर और नवंबर 2024 में एक्सपोर्ट 32.11 अरब डॉलर रहा है.
जब इंदिरा गांधी ने घटाई रुपये की वैल्यू
भारत की इकोनॉमी, रुपया और डॉलर और एक्सपोर्ट-इंपोर्ट का एक कनेक्शन आपको इतिहास में भी देखने को मिलता है.भारत की आजादी के वक्त 1 डॉलर की वैल्यू 4 रुपये के बराबर थी. लंबे समय तक दोनों करेंसी की वैल्यू में बदलाव नहीं हुआ. इसके बाद आई इंदिरा गांधी की सरकार. तब तक भारत की आजादी को करीब 20 साल हो चुके थे. चीन और पाकिस्तान के साथ भारत 5 साल के अंदर दो युद्ध लड़ चुका था.
इस समय देश की इकोनॉमी को उबारने के लिए भारत को विदेशी मदद की जरूरत थी, लेकिन इसके साथ एक शर्त थी कि भारत को अपनी करेंसी डीवैल्यू करनी होगी. इंदिरा गांधी सरकार ने उस समय ये फैसला लिया और एक्सपोर्ट बढ़ाने के लिए भारत की करेंसी को डी-वैल्यू किया.
उनकी सरकार के इस काम को भारत की इकोनॉमी ओपन करने का पहला प्रयास माना जाता है, लेकिन ये फ्लॉप हो गया, क्योंकि उस समय देश में प्रोडक्शन को लेकर लाइसेंस राज और इंस्पेक्टर राज कायम था. सीमित मात्रा में ही प्रोडक्शन हो सकता था. बाद में 1991 में कांग्रेस की पी. वी.नरसिम्हा सरकार और वित्त मंत्री मनमोहन सिंह की जोड़ी ने भारत की इकोनॉमी को ओपन करने का काम किया.