‘उधार के नेताओं से लड़ रही है कांग्रेस…’, अमित शाह के इस दावे के बीच जानिए बीजेपी का हाल
बागलकोट। 35 डिग्री तापमान के बीच भरी दोपहर में कर्नाटक के बागलकोट में गृह मंत्री अमित शाह का भाषण शुरू होता है. अपने भाषण में अमित शाह कांग्रेस के साथ ही बीजेपी छोड़ने वाले नेताओं को भी निशाने पर लेते हैं. शाह रैली में कहते हैं- कांग्रेस के पास चुनाव लड़ने के लिए नेता नहीं है, इसलिए उधार के नेताओं के सहारे मैदान में है.
लोगों को संबोधित करते हुए शाह रैली में आगे कहते हैं, ‘कांग्रेस का दिवालियापन इस बात से साबित होता है कि चुनाव लड़ने के लिए वह बीजेपी छोड़कर आए नेताओं पर आश्रित है.’ शाह ने इस दौरान बीजेपी से कांग्रेस गए पूर्व सीएम जगदीश शेट्टार की हार को लेकर भी बड़ा दावा किया है.
शेट्टार बीजेपी से टिकट नहीं मिलने पर हाल ही में पार्टी छोड़ कांग्रेस में शामिल हो गए थे. कांग्रेस ने शेट्टार को हुबली सेंट्रल विधानसभा से टिकट दिया है. शेट्टार के अलावा बीजेपी से आए लक्ष्मण सवादी को भी कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार बनाया है.
कर्नाटक में किस पार्टी से कितने दलबदलू?
कर्नाटक के 224 सीटों के लिए हो रहे चुनाव में कांग्रेस, बीजेपी और जेडीएस ने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है. जेडीएस ने सबसे अधिक 28 दलबदलुओं को टिकट दिया है. इनमें कांग्रेस और बीजेपी दोनों पार्टी से आए नेता शामिल हैं.
बीजेपी ने दूसरी पार्टी से आए 17 नेताओं को टिकट दिया है. इनमें से अधिकांश वो नेता शामिल हैं, जो 2019 में ऑपरेशन लोटस के दौरान बीजेपी में शामिल हुए थे.
बीजेपी ने कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे अनंद सिंह के बेटे सिद्धार्थ सिंह को भी टिकट दिया है. अनंत सिंह बासवराज बोम्मई की सरकार में मंत्री हैं. अनंद सिंह रेड्डी ब्रदर्स के करीबी भी माने जाते हैं.
कांग्रेस ने इस बार दलबदलुओं को सबसे कम टिकट दिया है. पार्टी ने कुल मिलाकर 6 टिकट दूसरी पार्टी से आए नेताओं को दिया है. इनमें शेट्टार और लक्ष्मण सवादी का नाम भी शामिल हैं.
कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार ने दिल्ली में पत्रकारों से कहा था कि बीजेपी से आने के लिए 150 लोग तैयार हैं, लेकिन हमारे पास जगह ही नहीं है, इसलिए सबको नहीं लिया जा रहा है.
2014 के बाद दलबदलुओं का सबसे बड़ा ठिकाना बीजेपी
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने नेशनल इलेक्शन वाच के साथ मिलकर 2014 से लेकर 2021 तक दलबदल करने वाले नेताओं का डेटा विश्लेषण किया. एडीआर के मुताबिक इन 7 सालों में 1133 नेताओं ने दल बदला.
सबसे अधिक 399 कांग्रेस से और 173 बीएसपी से शामिल हैं. कई राज्यों में कांग्रेस की पूरी यूनिट ही दलबदल कर दूसरी पार्टी में शामिल हो गई. इन 7 सालों में 144 नेताओं ने बीजेपी का दामन भी छोड़ा है.
हालांकि, दलबदलुओं का सबसे पसंदीदा जगह बीजेपी ही है. एडीआर के मुताबिक 2014 से 2021 तक बीजेपी में सांसद-विधायक रहे 426 नेता शामिल हुए हैं. इनमें विधायक स्तर के 253 और सांसद स्तर के 173 नेता शामिल हैं.
कांग्रेस में सांसद-विधायक स्तर के 176 नेता शामिल हुए, जबकि बीएसपी से 77 लोग जुड़े. शरद पवार की एनसीपी और राम विलास पासवान की एलजीपी भी दलबदलुओं का पसंदीदा ठिकाना है.
दलबदलुओं की वजह से 3 राज्यों में बीजेपी की सरकार
दलबदलुओं की वजह से पिछले 5 साल में बीजेपी 3 राज्यों में सरकार बनाने में कामयाब रही है. कर्नाटक में पहली बार 2019 में बीजेपी कांग्रेस और जेडीएस के दलबदलुओं के सहारे सत्ता में आई. राज्य में जेडीएस के एचडी कुमारस्वामी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी.
कुमारस्वामी के खिलाफ कांग्रेस के 17 विधायकों ने मोर्चा खोल दिया और समर्थन वापस लेने का ऐलान कर दिया. विधायकों के समर्थन वापस लेने के बाद कुमारस्वामी की सरकार गिर गई और बीजेपी की सरकार बन गई. बाद में सभी बागी विधायक बीजेपी में शामिल हो गए.
2019 में कर्नाटक के बाद मध्य प्रदेश में भी दलबदलुओं की वजह से कांग्रेस की सरकार गिर गई. ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में 27 विधायक बीजेपी में शामिल हो गए. इसके बाद राज्य में बीजेपी की सरकार बन गई.
कर्नाटक और मध्य प्रदेश की तरह महाराष्ट्र में भी दलबदलुओं की वजह से बीजेपी की सरकार बनी. 2022 में शिवसेना के एकनाथ शिंदे ने 40 विधायकों के साथ बगावत कर उद्धव ठाकरे की सरकार गिरा दी.
4 राज्यों में दलबदलू ही बीजेपी में बॉस
बीजेपी दलबदलुओं को सिर्फ चुनाव जीतने और मंत्री बनने तक ही सीमित नहीं रख रही है. बिहार, बंगाल, झारखंड और असम जैसे राज्यों में दलबदलुओं को ही नेतृत्व दे दिया गया है. चारों राज्य में लोकसभा की 100 से अधिक सीटें हैं.
बिहार में दलबदलू सम्राट चौधरी को बीजेपी ने हाल ही में प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया है. 1990 से राजनीतिक करियर की शुरुआत करने वाले सम्राट आरजेडी, जेडीयू और हम जैसे पार्टियों में रह चुके हैं. बीजेपी सम्राट के जरिए नीतीश कुमार के लव-कुश समीकरण को तोड़ने की कोशिश में जुटी है.
बिहार के पड़ोसी झारखंड में भी दलबदलु बाबू लाल मरांडी के हाथ में नेतृत्व है. मरांडी 2020 में बीजेपी में शामिल हुए थे. इसके बाद उन्हें विधायक दल का नेता बनाया गया था. हालांकि, विधानसभा से अब तक उनको मान्यता नहीं मिली है.
मरांडी 2006 में बीजेपी हाईकमान से नाराज होकर खुद की पार्टी बना ली थी. मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री रह चुके हैं और राज्य का बड़ा आदिवासी चेहरा भी हैं.
बिहार और झारखंड की तरह पश्चिम बंगाल में विधायकों का नेतृत्व दलबदलू शुभेंदु अधिकारी के हाथ में है. शुभेंदु अधिकारी तृणमूल कांग्रेस के नेता थे और 2021 चुनाव से पहले बीजेपी में शामिल हो गए थे.
शुभेंदु अभी बंगाल विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं और ममता सरकार के खिलाफ हमलावर रहते हैं. शुभेंदु ने 2021 में नंदीग्राम सीट पर ममता बनर्जी को चुनाव हराया था.
असम में तो हिमंता बिस्वा सरमा को बीजेपी ने 2021 में मुख्यमंत्री ही बना दिया. सरमा 2015 में कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल हो गए थे. सरमा के बीजेपी में आने के बाद असम में पार्टी पहली बार सत्ता में आई.
दलों के लिए दलबदलू क्यों महत्वपूर्ण?
माहौल बनाने में माहिर होते हैं- चुनाव से पहले दलबदल कर आए नेता बयानों के जरिए माहौल बनाने में माहिर होते है. इन नेताओं को मीडिया का भी खूब फुटेज मिलता है, जिससे राज्य में लोगों के बीच संबंधित पार्टी की चर्चा चलने लगती है.
इतना ही नहीं, दलबदलु नेताओं के पास अन्य पार्टियों के रणनीति के बारे में भी जानकारी रहती है. इसका फायदा भी संबंधित पार्टियों को मिलती है. साथ ही कार्यकर्ताओं और जातीय समीकरण के सहारे दलबदलू चुनाव जीतने में सफल हो जाते हैं.
मजबूत उम्मीदवारों की कमी- विधानसभा और लोकसभा चुनाव में कई ऐसी सीटें होती हैं, जहां समीकरण के हिसाब से पार्टी के पास मजबूत उम्मीदवार नहीं होते हैं. ऐसे में इन कमियों को दलबदलू नेता ही पूरा करते हैं.
जातीय और क्षेत्रीय समीकरण के हिसाब से मजबूत नेताओं को चिह्नित कर पार्टी उसे अपने पाले में लाने की कोशिश करती है. सफल होने पर टिकट भी देती है. मजबूत नेताओं का अपना जनाधार होता है, जिस वजह से पार्टी का काडर कमजोर होने पर भी काम चल जाता है.
दलबदल रोकने में कानून कारगर नहीं
दलबदल को रोकने के लिए साल 1985 में भारत के संविधान में 52 संशोधन किया गया, जिसके बाद 10वीं अनुसूची आस्तित्व में आया. इसके मुताबिक विधायकों पर कार्रवाई का अधिकार स्पीकर को दिया गया. इसमें अंदर और बाहर दोनों जगह उनके आचरण के लिए अयोग्यता की कार्रवाई का अधिकार दिया गया.
हालांकि, कई मामलों में देखा गया है कि शिकायत के बावजूद इस पर कार्रवाई नहीं हुई है. उदाहरण के लिए तृणमूल कांग्रेस ने अपने 3 सांसद शिशिर अधिकार, दिव्येंदु अधिकारी और सुनील मंडल के खिलाफ 2021 में शिकायत दर्ज कराई थी, लेकिन अब तक तीनों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है.
दलबदल कानून में दो तिहाई विधायकों के एकसाथ अलग होने पर किसी भी तरह की कार्रवाई का नियम नहीं है. कई जगहों पर देखा गया है कि कार्रवाई से बचने के लिए एकसाथ विधायक पार्टी छोड़ देते हैं. दलबदल कानून सिर्फ चुने हुए जनप्रतिनिधियों पर ही लागू होता है, इसलिए बड़े-छोटे नेता आसानी से पार्टी बदल लेते हैं.
अब जाते-जाते पढ़िए 3 दलबदलुओं की कहानी…
- गयालाल- 1967 में हरियाणा के पलवल के होडल विधानसभा से एक विधायक थे गयालाल. उन्होंने 16 घंटे में तीन बार पार्टी बदल ली. पहले कांग्रेस छोड़ जनता पार्टी में शामिल हुए. इसके बाद बड़े नेताओं ने मान मनौव्वल शुरू किया तो चंडीगढ़ में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कांग्रेस में शामिल होने की घोषणा कर दी.
हालांकि, फिर कुछ देर बाद जनता पार्टी में गयालाल शामिल हो गए. इसके बाद हरियाणा की राजनीति में आया राम, गया राम का एक मुहावरा भी प्रचलित हो गया.
- स्वामी प्रसाद मौर्य- यूपी के पूर्व मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य भी दलबदल करने में सबसे आगे हैं. मौर्य की गिनती एक वक्त में मायावती के करीबी में होती थी, लेकिन 2017 के चुनाव से पहले उन्होंने बीजेपी का दामन थाम लिया.
बीजेपी में आने के बाद मौर्य चुनाव भी जीते और मंत्री भी बने, लेकिन 2022 के चुनाव से पहले सपा में आ गए. हालांकि, इस बार उन्हें अपनी सीट पर ही हार मिली. मौर्य अभी विधान परिषद के सदस्य हैं.
- नरेश अग्रवाल- मुलायम सरकार में मंत्री रहे नरेश अग्रवाल अभी बीजेपी में है. 40 साल के राजनीतिक करियर में अग्रवाल 4 पार्टियों में रह चुके हैं. कांग्रेस से राजनीति में एंट्री करने वाले अग्रवाल ने 1997 में अखिल भारतीय लोकतांत्रिक कांग्रेस की स्थापना की.
बाद में मुलायम सिंह यादव के साथ आ गए और सपा में शामिल हो गए. सपा ने उन्हें राज्यसभा भी भेजा, लेकिन 2018 में अग्रवाल अपने बेटे नितिन के साथ बीजेपी में चले गए. वर्तमान में नितिन योगी कैबिनेट में मंत्री हैं.