देशद्रोह कानून की संवैधानिकता पर उठे सवाल, मीडिया पेशेवरों ने भी दी चुनौती
नई दिल्ली। द फाउंडेशन ऑफ मीडिया प्रोफेशनल्स ने सुप्रीम कोर्ट में देशद्रोह से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका पर एक हस्तक्षेप याचिका दायर की है. मामले की सुनवाई न्यायमूर्ति यूयू ललित और न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की पीठ कर रही है. अगली सुनवाई 27 जुलाई को है. केंद्र सरकार और महान्यायवादी से जवाब मांगा गया है.
अप्लीकेशन अधिवक्ता राहुल भाटिया के जरिए दाखिल किया गया. इसके अनुसार राजद्रोह कानून औपनिवेशिक हुक्म है, जिसे स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए लाया गया था. यह कोई प्रजातांत्रिक आंदोलन से पैदा नहीं हुआ है.
याचिका में बताया गया है कि अंग्रेजों की प्रवृत्ति पूरी तरह से भारतीय नगारिकों की पूरी निष्ठा और उनके अनुपालन को न सिर्फ कार्रवाई में, बल्कि विचार के स्तर पर भी सुनिश्चित करवाने की थी. देशद्रोह कानून का बनाया जाना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है. यहां पर यह नोट करना प्रासंगिक होगा कि भारतीय अदालतों ने बड़े पैमाने पर हर अप्रिय शब्द को ‘कार्रवाई’ के दायरे में लाने के खिलाफ कड़ा रूख अख्तियार किया है.
याचिका के अनुसार मीडिया पेशेवरों के लेखन और भाषण दोनों पर 124ए की काली साया रहती है. किसी भी विषय पर कोई भी राय को अपने दायरे में ले सकती है. सरकारी कदमों और क्रियाकलापों के खिलाफ किसी भी गंभीर विमर्श को सरकार विरोधी मान लिया जाता है (इसके लिए एंटी नेशनल शब्द का प्रयोग किया जाता है). सरकारी अधिकारी इसके लिए राजद्रोह मानते हैं. सरकार द्वारा बनाए गए किसी भी कानून, नीति या उठाए गए कदमों पर दी गई राय या वैध आलोचना को कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति असंतोष के रूप में देखा जाता है. यह टर्म अस्पष्ट और धुंधला है. इसकी विषयगत रूप से व्याख्या की जाती है. इसलिए राजनीतिक विरोधियों को प्रताड़ित करने के लिए हमेशा दुरुपयोग किया जाता है.
आपको बता दें कि सोमवार को भारत के अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अपना जवाब दाखिल करने के लिए दो सप्ताह का समय मांगा.
न्यायमूर्ति यूयू ललित और न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की पीठ मणिपुर और छत्तीसगढ़ के दो पत्रकारों द्वारा दायर एक रिट याचिका पर सुनवाई कर रही है, जिसमें देशद्रोह के अपराध की संवैधानिकता को चुनौती दी गई है.
इस याचिका पर 30 अप्रैल को अटॉर्नी जनरल को नोटिस जारी किया गया था.
याचिकाकर्ता पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेमचा और कन्हैया लाल शुक्ला की ओर से एडवोकेट तनिमा किशोर के माध्यम से और एडवोकेट सिद्धार्थ सीम द्वारा तैयार की गई मुख्य रिट याचिका में तर्क दिया गया है कि ये धारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत मौलिक अधिकार का उल्लंघन करती है. यह हमें गारंटी देता है कि सभी नागरिकों को बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार होगा.
केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य के मामले में 1962 में कानून की वैधता को बरकरार रखने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए याचिकाकर्ता ने तर्क दिया है कि अदालत लगभग साठ साल पहले अपने निष्कर्ष में सही हो सकती है, लेकिन ये कानून आज संवैधानिक कसौटी पर पास नहीं होता.
याचिकाकर्ताओं ने देशद्रोह के कानून के संबंध में विचार की जाने वाली तीन परिस्थितियों की ओर इशारा किया है. अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत भारत के दायित्व हैं, क्योंकि यह नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय नियम द्वारा बाध्य है, जो सभी व्यक्तियों के अधिकार के रूप में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है और धारा 124-ए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंध करती है.
1962 के बाद से धारा 124-ए के दुरुपयोग, कुप्रयोग और दुष्प्रयोग की लगातार घटना होती रही है. कानून का दुरुपयोग, अपने आप में, कानून की वैधता पर निर्भर नहीं हो सकता है, बल्कि स्पष्ट रूप से वर्तमान कानून की अस्पष्टता और अनिश्चितता की ओर इशारा करता है.
दुनिया भर के तुलनात्मक उत्तर-औपनिवेशिक लोकतांत्रिक अधिकार क्षेत्र में राजद्रोह की धाराएं निरस्त कर दी गई हैं, जबकि भारत खुद को एक ‘लोकतंत्र’ कहता है, पूरी लोकतांत्रिक दुनिया में राजद्रोह के अपराध की निंदा अलोकतांत्रिक, अवांछनीय और अनावश्यक के रूप में की गई है.
याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया है कि धारा 124-ए की अस्पष्टता उन व्यक्तियों की लोकतांत्रिक स्वतंत्रता पर एक अस्वीकार्य प्रभाव डालती है जो आजीवन कारावास के डर से वैध लोकतांत्रिक अधिकारों और स्वतंत्रता का आनंद नहीं ले सकते हैं.