शरद पवार की होगी घर वापसी, एनसीपी का कांग्रेस में विलय का प्लान?
महाराष्ट्र की सियासत छह दशकों तक शरद पवार के इर्द-गिर्द ही घूमती रही. वो सत्ता में हों या न हों, उनके पास बहुमत हो या न, लेकिन सूबे की राजनीति में शरद पवार ‘फैक्टर’ सबसे अहम रहा. वे महाराष्ट्र की पॉलिटिक्स को अपने लिहाज से चलाते रहे, लेकिन वक्त का पहिया ऐसा घूमा कि शरद पवार सियासी तौर पर अब असहाय नजर आ रहे हैं. भतीजे अजित पवार ने ऐसा सियासी दांव चला कि शरद पवार चारो खाने चित्त हो गए. उनके हाथों से पार्टी छिन गई नेता भी साथ छोड़ गए. ऐसे में शरद पवार के लिए नई पार्टी बनाकर दोबारा से उसे खड़ा करना आसान नहीं है, जिसके चलते उनकी पार्टी के कांग्रेस में विलय किए जाने की चर्चा तेज है.
बता दें कि शरद पवार ने 24 साल पहले कांग्रेस से अलग होकर एनसीपी का गठन किया था और उस समय में वो युवा अवस्था में थे, जिसके चलते वो मशक्कत कर अपने पार्टी को महाराष्ट्र में स्थापित करने में कामयाब रहे. लेकिन, अब उम्र के ऐसे पड़ाव पर हैं, जहां न 24 साल पहले की तरह मेहनत कर सकते हैं और न ही उस तरह की लोकप्रियता बची है. अजित पवार ने एनसीपी के बड़े धड़े को अपने साथ मिलाकर पार्टी पर अपना कब्जा जमा लिया. इतना ही नहीं बीजेपी के साथ हाथ मिलकर डिप्टी सीएम भी बन गए.
शरद पवार के सामने बेटी सुप्रिया सुले को अपने सियासी वारिस के तौर पर स्थापित करने की चुनौती खड़ी हो गई तो अब उनके लिए नई पार्टी बनाकर दोबारा से उसे खड़ा करना आसान नहीं है. लोकसभा चुनाव में महज डेढ़ महीने का वक्त बाकी है. ऐसे में शरद पवार के एक बार फिर से घर वापसी की चर्चा तेज है. साठ के दशक में शरद पवार ने जहां से अपनी राजनीतिक पारी का आगाज किया, उसी जगह से फिर दस्तक देने की आहट है. शरद पवार अपनी पार्टी का अगर कांग्रेस में विलय करते हैं तो उनकी तीसरी बार कांग्रेस में वापसी होगी.
कांग्रेस से सियासी पारी का आगाज
शरद पवार अपनी राजनीतिक पारी का आगाज कांग्रेस से किया. 1958 में शरद पवार कांग्रेस की युवा इकाई में शामिल हुए और चार साल बाद 1962 में ही उन्हें पुणे जिले में युवा इकाई का अध्यक्ष बने. 1967 में शरद पवार 27 साल की उम्र में बारामती से कांग्रेस विधायक चुने गए और उसके बाद बारामती को अपना गढ़ बना लिया. 1969 में राष्ट्रपति के चुनाव के बाद जब कांग्रेस पार्टी से इंदिरा गांधी को निकाल दिया गया तो शरद पवार ने यशवंतराव चव्हाण के साथ इंदिरा गांधी के गुट वाली कांग्रेस का दामन थाम लिया.
1977 में आपातकाल के बाद कांग्रेस फिर से दो गुटों में ‘इंदिरा कांग्रेस’ और ‘रेड्डी कांग्रेस’ में विभाजित हो गई. यशवंतराव और वसंत पाटिल के साथ शरद पवार ‘रेड्डी कांग्रेस’ में शामिल हो गए . 1978 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में दोनों कांग्रेस अलग-अलग लड़ीं. जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, लेकिन बहुमत से पीछे रहे गए. ऐसे में दोनों धड़ों ने मिलकर वसंतदादा पाटिल की सरकार बनवाई. शरद पवार मंत्री बने. सरकार बनने के बाद कई नेता असहज थे.सरकार में विवाद बढ़ने लगे. ऐसे में शरद पवार 40 समर्थक विधायकों के साथ बाहर चले गए और साढ़े चार महीने में गठबंधन सरकार गिर गई.
शरद पवार की घर वापसी
शरद पवार ने अपनी सोशलिस्ट कांग्रेस पार्टी बनाई और जुलाई 1978 में शरद पवार 38 साल की उम्र में ‘प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक पार्टी’ यानी ‘प्रलोद’ की सरकार बनने के साथ महाराष्ट्र के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बने. हालांकि, डेढ़ महीने ही सीएम की कुर्सी पर रह सके. इसके बाद कांग्रेस में वापसी की और 1983 में यूथ कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बने. 1884 में शरद पवार बारामती सीट से सांसद चुने गए. कहा जाता है कि राजीव गांधी ने देश और कांग्रेस की कमान संभाली. राजीव के बाद कांग्रेस में एक नई पीढ़ी बनने लगी. जैसा कि पवार ने खुद अपनी राजनीतिक आत्मकथा में लिखते हैं, ‘राजीव गांधी ने कांग्रेस में वापस आने और साथ काम करने की इच्छा जताई थी.’
महाराष्ट्र और कांग्रेस के कुछ नेता पवार की वापसी के खिलाफ थे, लेकिन वसंतदादा पाटिल के गुट का प्रभाव कम होने लगा था. राजीव गांधी की इच्छा थी, लेकिन शरद पवार को भी कांग्रेस की जरूरत थी, क्योंकि महाराष्ट्र में शिवसेना के बढ़ता प्रभाव उनके लिए चुनौती बन रहा था. इसके बाद शरद पवार को महाराष्ट्र की राजनीति में रहने की इच्छा को देखते हुए 1985 में प्रदेश में रखा गया. 1988 में राजीव गांधी ने शंकरराव चव्हाण को अपने केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर शरद पवार महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बना दिया.
पवार का केंद्रीय राजनीति में बड़ा दखल
शरद पवार ने नब्बे के दशक के साथ केंद्रीय राजनीति में कदम रखा. इस दौरान 1991 और 1996 में प्रधानमंत्री बनने की कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हो सके. 1991 में राजीव गांधी की हत्या में हो गई थी और कांग्रेस में नेतृत्व का सवाल एक बड़ा मुद्दा बन गया. सोनिया तब राजनीति में नहीं आयीं थीं. शरद पवार ने अपनी आत्मकथा में भी लिखा है, ‘कांग्रेस में कई लोग, ख़ासकर युवा, चाहते थे कि पवार पार्टी का नेतृत्व करें.’ 1991 में प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शरद पवार उतरे, लेकिन संसदीय दल की वोटिंग में पीवी नरसिम्हा राव को ज़्यादा वोट मिले और पवार के हाथों से मौका निकल गया.
बाबरी विध्वंय और मुंबई दंगे के बाद शरद पवार की महाराष्ट्र की राजनीति में वापसी हुई और 1993में तीसरी बार वो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने.1995 में महाराष्ट्र की सत्ता से हटने वाले शरद पवार 1996 में गठबंधन राजनीति का दौर शुरू होने के बाद दिल्ली की राजनीति में अहम नेता बन गए. बाद में, वह कांग्रेस की ओर से लोकसभा में विपक्ष के नेता बने. कहा गया कि गठबंधन के इस दौर में पवार दूसरी बार प्रधानमंत्री पद की दौड़ में करीब पहुंचे थे.कांग्रेस बहुमत में नहीं थी, लेकिन उसके समर्थन से सरकारें बन रही थीं. सोनिया गांधी के साथ उनके संबंध तनावपूर्ण रहे. इसमें कांग्रेस में वरिष्ठ नेताओं की एक धड़ा पवार के खिलाफ था.
शरद पवार ने जब बनाई एनसीपी
1997 में सोनिया गांधी ने सक्रिय राजनीति में आने का फैसले किया और फिर कांग्रेस के अंदर का गणित भी बदल गया. सोनिया कांग्रेस की अध्यक्ष बनते ही पार्टी के एक बड़े धड़े की राय थी कि सोनिया को प्रधानमंत्री बनना चाहिए. ऐसे में शरद पवार ने 1999 में सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाया. सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के फैसले का विरोध शरद पवार ने किया था. इसके बाद पीए संगमा और तारिक अनवर के साथ मिलकर ‘राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी’ (एनसीपी) की स्थापना की.
1999 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव महाराष्ट्र में एक साथ हुए थे. 1999 में कांग्रेस और एनसीपी अलग-अलग चुनाव लड़ीं. लेकिन चुनाव के बाद दोनों पार्टियों के बीच महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिए गठबंधन भी हो गया. इसके बाद से एनसीपी और कांग्रेस का गठबंधन अभी तक चला आ रहा है. साल 2004 में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनी, लेकिन सोनिया ने प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर दिया. सोनिया गांधी की पसंद के मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने. उस वक्त ये कहा गया था कि अगर शरद पवार कांग्रेस में होते तो उनके प्रधानमंत्री बनने का चांस था. कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए गठबंधन का एनसीपी हिस्सा रही और शरद पवार दस साल तक केंद्र में मंत्री रहे.
हालांकि, 2014 में बीजेपी नीत एनडीए की जीत के साथ ही शरद पवार के हाथ से केंद्रीय मंत्रालय चला गया. इतना ही नहीं, 2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भी एनसीपी को हार का मुंह देखना पड़ा. महाराष्ट्र के इस चुनाव में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी. 2019 के विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद शिवसेना ने बीजेपी से गठबंधन तोड़ दिया. शरद पवार ने यह एनसीपी, कांग्रेस और शिवसेना का महाविकास आघाड़ी गठबंधन बनाया. उद्धव ठाकरे महा विकास अघाड़ी गठबंधन सरकार में सीएम थे. हालांकि, शिवसेना के ही एकनाथ शिंदे गुट की बगावत के चलते ये सरकार गिर गई.
पवार के सामने घर वापसी का विकल्प
महाराष्ट्र की राजनीति में शरद पवार के नाम का सिक्का चलता है, लेकिन एनसीपी में टूट के चलते समीकरण भी बदले और उनका सियासी कद भी घट गया. अजित पवार ने एनसीपी पर अपना कब्जा जमाने के साथ-साथ पार्टी के विधायकों को भी अपने साथ मिला लिया. चुनाव आयोग ने अजित पवार गुट को ही असली एनसीपी माना और चुनाव निशान घड़ी भी उन्हें दे दी. इस तरह से शरद पवार के पास न पार्टी बची है और न ही कोई बड़ा नेता.
शरद पवार के तमाम करीबी नेता अब अजित पवार के साथ खड़े हैं. लोकसभा चुनाव में महज डेढ़ महीने ही बचे हैं. ऐसे में शरद पवार के सामने अपनी नई पार्टी और चुनाव निशान को लोगों के बीच पहुंचाने की चुनौती है तो दूसरी तरफ अपनी बेटी सुप्रिया सुले को भी सियासी तौर पर स्थापित करने का चैलेंज है. ऐसे में शरद पवार गुट का कांग्रेस में फिर से विलय होने की चर्चा है, क्योंकि शरद पवार ने जिन लोगों के साथ मिलकर कांग्रेस से अलग पार्टी बनाई थी. उनमें पूर्व लोकसभा स्पीकर पीए संगमा का निधन हो चुका है और तारिक अनवर की कांग्रेस में वापसी पहले ही हो चुकी है. अब एनसीपी भी शरद पवार के हाथों से निकल गई है. ऐसे में, शरद पवार अगर कांग्रेस में वापसी करते हैं तो फिर उनकी यह तीसरी पारी होगी.