छत्तीसगढ़ी भाषा की समृद्धि : मुहावरे, कहावतें एवं लोकोक्तियॉं
संजीव तिवारी
लोक भाषाओं में मुहावरा और कहावतें सुनने में बहुत रोचक लगती हैं। इससे भाषा में रोचकता बनी रहती है और संवाद में मधुरता का आभास होते रहता है। इनमें निहित संदेश लोक शिक्षण का होता है एवं इसका उद्देश्य एक सभ्य समाज की स्थापना करना होता है। लोक की यह उक्तियॉं इस प्रकार होती हैं कि एक गवंई अनपढ़ मानुष पढ़े लिखे विद्वान को भी तर्क से हतप्रभ कर दे। ये प्राय: संक्षिप्त, सारगर्भित और सप्रमाण होती हैं। छत्तीसगढ़ी में भी ऐसे ही कई रोचक मुहावरे, कहावतें एवं लोकोक्तियॉं हैं जो अब विलुप्ति के कगार पर है। गांव के बहुत कम बड़े-बूढ़े रह गए हैं जो इनका प्रयोग गाहे-बगाहे करते रहते हैं।
इंटरनेट के इस युग में अपनी भाषा, संस्कृति और परंपराओं से प्रेम करने वाले खासकर सोशल मीडिया में अक्सर यह कहते रहते हैं कि छत्तीसगढ़ी मुहावरे, कहावतें एवं लोकोक्तियॉं को संग्रहित किया जाना चाहिए। उनकी चिंता जायज है, भाषा से विलुप्त होते इन महत्वपूर्ण अवयवों का संकलन आवश्यक है। हम आपको बता दें कि अपनी अस्मिता की चिंता करते हुए कुछ ऐसे ही लोगों नें इस कार्य को समय-समय पर किया है। छत्तीसगढ़ी के मुहावरे, कहावतें एवं लोकोक्तियॉं को संग्रहित कर प्रकाशित करने का आरंभिक कार्य हीरालाल काव्योपाध्याय नें की अपने किताब ‘छत्तीसगढ़ी बोली का व्याकरण’ में किया है। यहां हम यह स्पष्ट कर दें कि छत्तीसगढ़ी का यह व्याकरण हिन्दी के व्याकरण से पहले ही प्रकाशित हो चुकी थी।
इसके बाद सन् 1969 में डॉ.दयाशंकर शुक्ल का शोध ग्रंथ ‘छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य का अध्ययन’प्रकाशित हुआ जिसमें लगभग 357 कहावतों का संग्रहप्रकाशित है। सन् 1976 में डॉ. चंद्रबली मिश्रा के द्वारा प्रस्तुत शोध ग्रंथ ‘छत्तीसगढ़ी मुहावरों और कहावतों का सांस्कृतिक अनुशीलन’में इनका विवेचनात्मक विश्लेषण किया गया है। इस विषय पर सबसे महत्वपूर्ण शोध ग्रंथ ‘छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन’ सन् 1979 में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित हुआ था। इस ग्रंथ में 940 लोकोक्तियों का संग्रह और शोध डॉ. मन्नूलाल यदु ने प्रस्तुत किया है। बाद में अन्य विद्वानों नें इसका संग्रहण का कार्य किया एवं शोध भी किया जिसमें डॉ.अनसूया अग्रवाल का नाम प्रमुख है इन्होंनें सन् 1990 में अपने शोध ग्रंथ ‘छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियों का समाजशास्त्रीय अध्ययन’ में न केवल मुहावरे, कहावतें एवं लोकोक्तियों का संग्रहण किया बल्कि इन्हें इनके प्रचलित भौगोलिक क्षेत्र के अनुसार विश्लेषित किया। बाद में डॉ.अनसूया अग्रवाल नें इसी विषय पर डीलिट भी किया जिसका शोध ग्रंथ भी प्रकाशित है। इस बीच अनेक छोटे-बड़े संग्रह प्रकाशित हुए जिसमें सन् 2008 में प्रकाशित चंद्रकुमार चंद्राकर की किताब ‘छत्तीसगढ़ी मुहावरा कोश’उल्लेखनीय है जिसे वृहद कोश माना जा सकता है जिसमें छत्तीसगढ़ी में प्रचलित लगभग सभी मुहावरे, कहावतें एवं लोकोक्तियॉं संग्रहित है।
इन्हीं ग्रंथें में से कुछ छत्तीसगढ़ी मुहावरे, कहावतें एवं लोकोक्तियों हम यहां प्रस्तुत कर रहे हें- छत्तीसगढ़ी में एक मुहावरा है ‘मन मसकई’ अर्थात मन ही मन अकारण क्रोध करना। इससे मिलता जुलता एक कहावत है ‘हपटे बन के पथरा, फोरे घर के सील’ अर्थात अन्य कारण से अन्य पर क्रोध उतारना। ज्यादा बोलने या अपना ही झाड़ते रहने पर छत्तीसगढ़ी मुहावरा है ‘पवारा ढि़लई’, इसी पर विस्तारवादी कहावत है ‘बईठन दे त पीसन दे’ जो हिन्दी के अंगुली पकड़ कर गर्दन पकड़ना का समानार्थी है। लालच को प्रदर्शित करने के लिए मुहावरा है ‘लार टपकई’ और ‘जीभ लपलपई’, इसी से मिलता जुलता एक कहावत है ‘बांध लीस झोरी, त का बाम्हन का कोरी’ हालांकि यह यात्रा में बाहर निकलने पर भोजन करने के संबंध में है किन्तु यह लालच के लिए भी प्रयुक्त होता है। निर्लज्जता को प्रदर्शित करने के लिए मुहावरा है ‘मुड़ उघरई’, इससे संबंधित कहावत है ‘रंडी के कुला म रूख जागे, कहै भला छंइहा होही’ वेश्या कब किसका भला करती है, किसे छांव देती है। आदत से संबंधित मुहावरा है ‘आदत ले लाचार होवई’, इसी से संबंधित कहावत है ‘जात सुभाव छूटे नहीं, टांग उठा के मूते’ और ‘रानी के बानी अउ चेरिया के सुभाव नई छूटे’एवं ‘बेंदरा जब गिरही डारा चघ के’।
अव्यक्त मजबूरी के लिए मुहावरा है ‘मन के बात मने म रहई’, इसी से संबंधित कहावत है ‘चोर के डउकी रो न सकय’। बेइमानी पर मुहावरा है ‘नमक हरामी करई’ और‘दोगलई करई’, इस पर कहावत है ‘जेन पतरी म खाए उही म छेदा करय’। संदिग्ध आचरण से संबंधित मुहावरा है ‘पेट म दांत होवई’, इससे संबंधित कहावत है ‘उप्पर म राम राम भितरी म कसई’। यह मुह में राम बगल में छूरी का समानार्थी है। जो मिल ना पाये उसकी आलोचना करने संबंधी हिन्दी के समान ही छत्तीसगढ़ी में भी मुहावरा है ‘अंगूर खट्टा होवई’, इससे संबंधित कहावत है‘जरय वो सोन जेमा कान टूटय’ अर्थात मुझे वह सोन की बाली नहीं चाहिए उससे कान टूठ जाता है।अत्याचार करने के संबंध में मुहावरा है ‘आगी मुतई’,इससे संबंधित कहावतों में ‘डहर म हागे अउ आंखी गुरेड़े’, ‘आगी खाही ते अंगहरा हागही’, ‘पानी म हगही त ऊलबे करही’। अनुवांशिकता से संबंधित मुहावरा है ‘बांस के जरी, बांसेच होही’ और ‘तिली ले तेल निकलई’, इससे संबंधित कहावतें हैं ‘गाय गुन बछरू, पिता गुन घोड़ा,बहुत नहीं तो थोड़ा थोड़ा’, ‘जेन बांस के बांस बंसुरी उही बांस के चरिहा टुकनी’, ‘जइसे दाई वइसे चिरा, जइसे ककरी वइसे खीरा’।
‘थैली के चोट ल बनिया जाने’ (धन की थैली का चोट धनिक ही जानेगा), ‘लोभी चमरा ल बाघ धरय’ (चमड़े की लालच में बाघ द्वारा मारे गए ढोर का चमड़ा उतारने वाले को बाघ खाता है), ‘सावन म आँखी फुटिस, हरियर के हरियर’। ‘करलई मातब’ (बड़ा दुःख) -सियान के मरे ले घर म करलई मात गए। ‘छाती के पीपर’ (घर का जबर शत्रु जो छाती को विदीर्ण कर दे) – का बतावव रे छाती के पीपर जाम गए। ‘हाथ के अलाली म मुंह म मेंछा जाय’ (मूछ को दिशा नहीं दोगे तो बाल मुँह के अंदर जाएंगे ही,अति आलस्य), ‘पांडे के पोथी-पतरा, पंड़इन के मुअखरा’ (पंडिताइन का ज्ञान पंडित से ज्यादा), ‘कउँवा के रटे ले ढोर नइ मरय’ (लालची के रटते रहने से अपेक्षित वस्तु नहीं मिलता), ‘औंघात रहिस जठना पागे’ (जिन खोजा तिन पाइयां)। कहावत ‘धुंगिया देखब’ (मौत देखना) – रोगहा तोर धुंगिया देखे ले मोर जीव जुड़ाही। ‘चलनी म गाय दुहय, करम ल दोस देवय’ (भाग्यवादी लोगों के विरुद्ध), ‘हपटे बन के पथरा, फोरे घर कह े सील’, ‘दुब्बर ल दु असाढ़’। ‘कान काटना’, ‘बीड़ा उठाना’, ‘बाना उचाना’।
ऐसे ही एक कहावत ‘जइसन ला तइसन मिलै, सुन गा राजा भील। लोहा ला घुन खा गै, लइका ला लेगे चील’ में पूरी की पूरी कहानी समायी हुई है। इस छत्तीसगढ़ी लोकोक्ति का भावार्थ है दूसरों से बुरा व्यवहार करने वाले को अच्छे व्यवहार की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए अर्थात जैसे को तैसा व्यवहार मिलना चाहिए।
पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही वाचिक परम्परा की इस लोकोक्ति से जुड़ी दंतकथा इस प्रकार है। एक गांव में दो मित्र आस पास में रहते थे, दोनों में प्रगाढ़ मित्रता थी। एक बार एक मित्र को किसी काम से दूर गांव जाना था। उसके पास वरदान में मिली लोहे की एक भारी तलवार थी, उसने सोंचा कि वह भारी तलवार को बाहर गांव ले जाने के बजाए अपने मित्र के पास सुरक्षित रख दे और वापस आकर प्राप्त कर ले। उसने वैसा ही किया और तलवार दूसरे मित्र के घर रखकर दूर गांव चला गया। कुछ दिन बाद वह वापस अपने गांव आया और अपने मित्र से अपनी तलवार मांगा, किन्तु मित्र लालच में पड़ गया और तलवार हड़पने के लिए बहाना बना दिया कि मित्र उस तलवार को तो घुन खा गया। (घुन वह कीड़ा है जो लकड़ी में लगता है और धीरे धीरे पूरी लकड़ी को खा जाता है) तलवार का स्वामी मित्र के इस व्यवहार से बहुत व्यथित हुआ किन्तु कुछ कर ना सका।
समय बीत गया, बात आई गई हो गई। कुछ समय व्यतीत होने के उपरांत दूसरे मित्र को भी किसी काम से बाहर गांव जाना पड़ा। उसे जल्दी जाना था और परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी कि उसे अपने छोटे बच्चे को मित्र के पास छोड़ना पड़ा। काम निबटा कर जब वह वापस गांव आया और अपने बच्चे को मित्र से मांगा तो मित्र ने कहा कि उसे तो चील उठा कर ले गया।दोनों के बीच लड़ाई बढ़ी और बात भील राजा के दरबार में पहुची। राजा ने मामला सुना और समझा, उसने न्याय करते हुए तलवार को दबा लेने वाले से मित्र को तलवार वापस दिलाई, मित्र नें उसे उसका बच्चा वापस दे दिया।